इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Friday, March 23, 2012

आखिर क्यूँ ???

सदियों से कभी 
सुध ली ना उसने....
फिर आदत सी हो गयी 
उसके बिना  जीने की ,
बिना किसी शिकवे शिकायत के.........
अब उम्र के
इस आखरी पड़ाव पर...
जाने क्यों
हर आहट पर
निगाह चली जाती है
उस बंद किवाड पर.
हैरान  है 
खुद पर ..
अपनी इस सोच पर-
कि जिसके बगैर
चलते  रहे 
यूँ तनहा
सारी उम्र..
बिना जिसके सहारे के
गुज़ार ली
ये पहाड़ सी जिंदगी...
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
उसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???


-अनु 
११/११/२०११ 

36 comments:

  1. very touching nd reality based aisa hi hota hai jane ke pehle ik bar milne ki ichcha jarur hoti hai.

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  2. क्यूँकि तब शरीर में और मन में शक्ति थी...शक्तिहीन शरीर का मन भी कमजोर है...शायद इसलिए|

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    1. हूँ ...यही बात है....रागी मन एक बार बुझने से पहले जी भर के जल जाना चाहता है।

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  3. *ऊढ़ा हो जाती अगर, दैहिक सुख को चाह ।

    इन बच्चों की परवरिश, करता के परवाह ।



    करता के परवाह, उड़ाती मैं गुलछर्रे ।

    पर बच्चों की चाह, चली ना तेरे ढर्रे ।



    कर पौरुष नि:शेष, लौट आया क्यूँ बूढ़ा ।

    फिर से देता क्लेश, हुई मैं क्यूँ न ऊढ़ा ।।

    * अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष के पास चली जाने वाली व्याहता ।

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    1. बहुत शुक्रिया रविकर जी आपकी अनमोल टिप्पणी के लिए...

      अगर ये सोच कर पढ़ें कि माँ-बाप इन्तज़ार कर रहे हैं बेटे का जो उन्हें छोड़ अपनी जिंदगी में मगन रहा....

      सादर.

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  4. संवेदनशील रचना .... इस यात्रा में शायद क्षमा कर देने का भाव हो ...

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  5. जिसके बगैर
    चलते रहे
    यूँ तनहा
    सारी उम्र..
    बिना जिसके सहारे के
    गुज़ार ली
    ये पहाड़ सी जिंदगी...
    अब इस अंतिम यात्रा के लिए
    उसका कांधा
    इतना
    लाज़मी क्यूँ है???
    जीने के लिए नहीं...
    तो मरने को सहारा क्यूँ???


    ज़रूरतें ही सिमट जाती हैं तब तक...!

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  6. कोई अपना जो छोड़ जाए अंतिम क्षणों में भी मिल लेने की आस होती है... चाहे वो जिस भी रिश्ते में हो. मार्मिक रचना, बधाई.

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  7. इंतज़ार ... कुछ परम्परायें भी कमज़ोरी बन जाती हैं। युगादि की शुभकामनायें!

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  8. मुझे अपनी डायरी का पता दे दो,चुरा लूँगा तुम्हारे एहसास सारे !

    संवेदनशील कविता !

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  9. जब तक जोश रहता है,अपने बूते ही दुनिया को जीत लेने के भ्रम में जीता है आदमी। जब तक होश आता है,दुनिया जीतकर भी हारा महसूस करता है आदमी।

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  10. भावों की जादूगरी मुखर हो उठी है . भावों की जादूगरी मुखर हो उठी है .

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  11. बहुत खूब भावों को प्रकट किया है अपने !

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  12. very nice poem .... thanks for visiting ... :)

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  13. मन को छूती हुई सुन्दर भावात्मक रचना..

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  14. अब इस अंतिम यात्रा के लिए
    उसका कांधा
    इतना
    लाज़मी क्यूँ है???... बांधो तो सब लाजमी है .... मिले न मिले कौन देखता है , तर्पण हो न हो - मुक्त तो हुए ही

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  15. भाव प्रबलता चरम पर है .. माँ की किसी कोने से उठी आवाज़ , किस तरह शब्दों में ढल गई . अति सुँदर .

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  16. माँ को मन पढ़ा जाय

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  17. उफ़ ! हिला कर रख दिया .
    बहुत संवेदनशील रचना .

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  18. अब इस अंतिम यात्रा के लिए
    उसका कांधा
    इतना
    लाज़मी क्यूँ है???
    जीने के लिए नहीं...
    तो मरने को सहारा क्यूँ???

    ....बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...अंतस को झकझोर दिया..

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  19. मन को छु गयी आपकी यह कविता

    सादर

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  20. भावमय करते शब्‍दों का संगम .. उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति ।

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  21. आपकी रचना भावुक कर देती है. सुंदर कविता.

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  22. आओ चलो तोड़ें इस बंधन को भी। वाकई ये व्यर्थ हैं।

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  23. शुक्रिया यशवंत.

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  24. अन्तःस्पर्शी रचना...
    सादर।

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  25. जुबाँ खामोश है ,आँखों को अब भी होश है ....??
    गहरे अहसास !
    शुभकामनाएँ!

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  26. "आखिर क्यूँ" ..... "आखिर क्यूँ" ये दो शब्द हमारी अंतरात्मा को झिंझोड़ के रख देते हैं... और इन उन्सुल्झे जवाबों के साथ ही उम्र ढल जाती है... फिर भी एक आस जिसके सहारे हम रहते हैं.... उसका अहसास रह जाता है...

    बहुर सुन्दर रचना ...

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  27. नाजुक से भाव भरे गहन अभिव्यक्ति.....
    सुन्दर:-)

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  28. अब इस अंतिम यात्रा के लिए
    उसका कांधा
    इतना
    लाज़मी क्यूँ है???
    जीने के लिए नहीं...
    तो मरने को सहारा क्यूँ???

    Osum! behad behad khoobsurat Panktiyan! Badhai kabule1

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  29. इंसान लाख अपने को झुठलाता रहे ...लेकिन आखरी पलों में ...सच उजागर हो ही जाता है .....इंतज़ार तब भी था ...अब भी है ....बस आस का अंतिम छोर है ....! ...खुद को और झुटलाया नहीं जा सकता ....

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  30. अच्छी रचना |

    सादर
    -आकाश

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