एक रिश्ता है..
मानों फैला हुआ दरख़्त.
मानों फैला हुआ दरख़्त.
दूर दूर तक पसरी शाखायें.
कितना सुकून था कभी
उसके साये तले जीने में............
मगर अब बीमार हो गया वो,
पत्ते बेजान..
न फूल न फल
सिर्फ कांटे..
अविश्वास का दीमक
खा रहा है जड़ों को....
सिर्फ कांटे..
अविश्वास का दीमक
खा रहा है जड़ों को....
उखाड फेंक दिया जाये क्या???
अब एक पेड़ तो काट भी दूँ...
मगर उसकी जड़ों से जुड गयीं हैं
बरस-दर-बरस
कई और छोटे बड़े,करीबी पेड़-पौधों की जड़ें..
जैसे कई रिश्ते जुड़ते चले जाते हैं
किसी एक रिश्ते के साथ..
जंज़ीर की कड़ियों की तरह..
अब एक साथ कितनी जड़ें खोदूं...
अपने साथ किस किस को घाव दूँ???
सोचती हूँ इंतज़ार करूँ....
सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
जाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख़्त पर भी
फल-फूल खिलाए....
-अनु
सोचती हूँ इंतज़ार करूँ....
सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
जाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख़्त पर भी
फल-फूल खिलाए....
-अनु
मनके भाव सहेजे हुए ..एक एक शब्द....सार्थक सच कहाँ है संभव ? उन
ReplyDeleteजड़ों को खोदना
सच है एक रिश्ते से कई रिश्ते जुड़ जाते है,जंज़ीर की कड़ियों की तरह..उसे फलते फूलते ही देखना अच्छा लगता है..बहुत सुन्दर भाव है अनु..बधाई
ReplyDeletesukhe darakht par bhi phul khilenge---------bahut hi sundar rachna
ReplyDeleteबेहतरीन कविता
ReplyDeleteसादर
bahut acha likha hae, kitne sad jaye rishte par ukhad pana hota hae mushkil...
ReplyDeletebahut khoobsurat bhaav bahut pasand aai yeh rachna.
ReplyDeletepuraana seenchati rahiye..saath mein naya rop dijiye..uss se bhi rishta ban jaayega..
ReplyDeleteसोचती हूँ इंतज़ार करूँ....
ReplyDeleteसो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
जाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख़्त पर भी
फल-फूल खिलाए....
behad achhi
Apni si lagti kavita...
ReplyDeleteintjar kren wo mausam jarur aayega.....
ReplyDeletevery touching ...
ReplyDeletei feel connected to this poem somehow..
simple and awesome...
एक सुने दरख़्त की व्यथा..बहुत ही सुन्दरता से व्यक्त किया है आपने...
ReplyDeleteभला सूनापन किसे भाता है..
बहुत ही सुन्दर....गहन भाव अभिव्यक्ति...
सुंदर बिम्ब ...आशावादी भाव लिए रचना ....
ReplyDeleteउस बीमार दरख़्त में अब भी इतनी शक्ति है कि
ReplyDeleteअपने नीचे पनप आए रिश्तों को समेट सके...
सकारात्मक सोच लिए सुंदर रचना!
...प्यार का रस जब आएगा,अपने आप हरियाली आ जायेगी !!
ReplyDeleteजिंदगी के दरख़्त में जड़ें अक्सर झकड़ा होती हैं । इनसे निकलना आसान नहीं होता ।
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति ।
सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
ReplyDeleteजाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख्त पर भी
फल-फूल खिलाए....
इस सुंदर अभिव्यक्ति के माध्यम से आपने बहुत गहरी बात कह दी है।
जंज़ीर की कड़ियों की तरह.सहेजे हुए भाव
ReplyDeleteरिश्तों के दरख़्त न सूखने पायें . उचित अन्तराल पर विश्वास का उर्वरक डालें और प्रेम रस से नहलाएं ..है न नानी के नुस्खे जैसा ??
ReplyDeleteआपके कमेंट के ज़रिए यहां तक आया और यह अर्थपूर्ण कविता पढ़ने को मिली। इस कविता की कशमकश जावेद अख़्तर की नज़्म की याद दिला गयी। संभवतः ‘उलझन’ या ‘दुश्वारी’ नाम था उसका।
ReplyDeleteमैंने जावेद साहब की ये नज़्म तो पढ़ी नहीं अलबत्ता गुलज़ार साहब की एक नज़्म से ज़रूर "inspired" है.....
Delete:-)
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/03/6.html
ReplyDeleteशुक्रिया दी :-)
Deleteये ही सही तरीका लगता है..
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
सादर।
सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
ReplyDeleteजाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख़्त पर भी
फल-फूल खिलाए...
bahut sundar....aabhar,
इस प्यार और विश्वास को संजोये रखिये ....बहुत ताक़त है इसमें......बहुत सुन्दर भावना !
ReplyDeleteअब एक पेड़ तो काट भी दूँ...
ReplyDeleteमगर उसकी जड़ों से जुड गयीं हैं
बरस-दर-बरस
कई और छोटे बड़े,करीबी पेड़-पौधों की जड़ें..
जैसे कई रिश्ते जुड़ते चले जाते हैं
किसी एक रिश्ते के साथ..
जंज़ीर की कड़ियों की तरह..
अब एक साथ कितनी जड़ें खोदूं...
अपने साथ किस किस को घाव दूँ???
जानती हूँ और यह भी अच्छी तरह मानती हूँ ,
पेड़ खुद बन जातें हैं अपनी खाद ,
इसी आस में निराश नहीं हूँ .
रिश्तों को सींचना ही पड़ता है ....रिश्तों की जड़ें बहुत उलझी होती हैं ...
ReplyDeleteजीवन में रिश्तों को परिभाषित करती और उम्मीद को जिंदा रखती एक भावपरक काव्य-रचना है यह...बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteपेड़ के माध्यम से रिश्तों का सुंदर चित्रण किया है आपने और टूटते हुए रिश्तों के बीच एक उम्मीद का सेतु धनात्मक बल दे रहा है। उम्दा।
ReplyDeletebest one.... heart touching....
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते ही भावों में खो गयी.... दबदबा गयीं आँखें मेरी....
जीवन इन्ही जड़ों की फिक्र में निकल जाती हैं... उस पेड़ की बेरुखी को तो हम बहूल ही जाते हैं
बहुत भावुक रचना
सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
ReplyDeleteजाने कब
शायद कोई ऐसा मौसम आये
जो इस सूखे दरख़्त पर भी
फल-फूल खिलाए....
अनुपम भाव संयोजन लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
ReplyDeleteयही भाव होने भी चाहिए |
सादर
-आकाश