इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Monday, December 8, 2014

मेरी कहानी - शिवकन्या 92.7 big fm पर

सुनिये मेरी लिखी कहानी -" शिवकन्या " नीलेश मिश्रा की जादुई आवाज़ में........
:-)

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यादों के इडियट बॉक्स में - मेरी लिखी कहानी "शिवकन्या "


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Tuesday, December 2, 2014

दर्द का कोई आकार नहीं होता
दुःख का कोई रंग नहीं
महकती नहीं उदासियाँ 

मन के सारे भेद खोल देती है
एक आह !
उलझे बालों की लटें
कसी मुट्ठियाँ
और भिंचे दांत !!

उतरे चेहरे,
शिकन पड़ा हुआ माथा
पपडाए होंठ
आवाज़ की लर्जिश
और गुलाबी डोरों वाली आँखे
कर देती हैं चुगलियाँ !

वरना रंजो ग़म की दास्तानें यूँ सरेआम नीलाम न होतीं.....
~अनुलता ~

Sunday, November 2, 2014

कहानी - मिष्टी

पढ़िए मेरी लिखी कहानी -  "मिष्टी'
 जो मध्यप्रदेश जनसंदेश के साप्ताहिक "कल्याणी " में आज प्रकाशित हुई है |


 “ मिष्टी “

मुझे इसी घर में रहना है , इसी घर में...बस !!
कहते हुए मिष्टी अमोल के गले से झूल गयी |
अरे बाबा रुको तो ज़रा, देखने तो दो कि घर में कमरे कितने हैं, कैसे हैं , किराया कितना है , मकान मालिक कौन हैं , कैसे हैं ! कुछ देखे भाले बिना यूँ ही कैसे तय कर सकती हो तुम ?
मैंने तय कर लिया है अमोल , मुझे इसी घर में रहना है... कितना प्यारा सा आँगन है , हरी दूब से ढंका हुआ और देखो किस तरह छितरे हुए हैं उस पर हरसिंगार ! ओ बाबा मुझे तो इश्क हो चला है इन फूलों से......
घर वाकई बहुत सुन्दर था | हरसिंगार के अलावा और भी मौसमी फूलों से क्यारियां भरी हुईं थीं | कोने में एक बांस का झूला लटका था , और सामने संगमरमर की कॉफ़ी टेबल | पीछे एक झरना सा बना हुआ था जिसमें से पानी बहने का मधुर स्वर जैसे आमंत्रण दे रहा हो |

 “अय्यर्स”
हाउस नंबर 44, न्यू मिनाक्षी एन्क्लेव
घर के बाहर लगी नेम प्लेट पर लिखा हुआ था |
अमोल ठिठक कर पढने लगा , तब तक दरवाज़ा खोल कर मिष्टी भीतर चली गयी और उसने कॉल बेल भी बजा डाली |
हे माँ ! क्या अधीर लड़की बांधी है तूने मेरे पल्ले से , नदी की तरह बहती चली जाती है बेरोकटोक ........अमोल बडबडाते हुए उसके पीछे पहुँच गया |
अमोल और मिष्टी की अभी अभी शादी हुई है और साथ ही अमोल का ट्रान्सफर भी | तमिलनाडु का त्रिची शहर दोनों के लिए अजनबी तो है ही साथ ही भाषा भी अनजानी है | सारी उम्र कोलकता में बिताने के बाद अचानक इतनी दूर चले आना दोनों के लिए आसान न था | यहाँ ज़्यादातर लोग तमिल ही बोलते थे और गैर तमिल भाषियों ने मिलने में ज़रा संकोच ही करते थे | पर मिष्टी और अमोल के उत्साह में कोई कमी नहीं थी |
दरअसल उनकी उम्र ही ऐसी थी उस पर नयी शादी , इश्क का ताज़ा ताज़ा बुख़ार , सब कुछ लुभावना लगना ही था , मानों आँखों पर गुलाबी काँच वाला चश्मा पहन रखा हो दोनों ने |  दोनों अकेले रहने के रोमांच का अनुभव तो करना चाहते थे मगर भीतर ही भीतर घबरा भी रहे थे कि कैसे सब कुछ सम्हाल पायेंगे |
शायद इसीलिए माँ-बाप की सलाह पर अमल करना चाहते थे कि ऐसा घर किराए पर लिया जाय जहाँ मकान मालिक का परिवार भी साथ रहता हो |
पढ़ाई ख़त्म करते ही तो शादी हो गयी थी मिष्टी की | अमोल को वो तकरीबन बचपन से जानती थी , पड़ोस में ही तो रहता था वो | साथ खेलते खेलते दोनों बड़े हुए और फिर कभी न जुदा होने की कसमें खा लीं | सब कुछ आसानी से होता चला गया था मिष्टी के जीवन में |
कुछ लोग ऐसे ही होते हैं.....ब्लेस्ड !!

अय्यर्स के घर का दरवाज़ा खुला और सामने खड़े थे एक सज्जन , जिन्होंने माथे पर चन्दन का बड़ा सा तिलक लगाया हुआ था और झक्क सफ़ेद धोती पहनी हुई थी | बदन पर कोई कपडा नहीं था, अलबत्ता उनका जनेऊ ज़रूर दिख रहा था | घर भीतर से एकदम सादा था | बाहर के कमरे में ही भगवान के कई फोटो फ्रेम किये हुए दीवार पर टंगे थे | घर अगरबत्ती की खुशबु से महक रहा था , सात्विक सा माहौल था |  एक पल को उन्हें लगा कि किसी मंदिर के द्वार पर खड़े हैं वो दोनों |

कुछ जगहों का अपना सम्मोहन अपनी ही पवित्रता होती है जो मन को बरबस खींचती है......पहले आँगन में बिखरे हरसिंगार और अब ये शांत सा कमरा.....
मिष्टी ने अपनी उँगलियाँ अमोल की कलाइयों पर कस दीं | अमोल समझ गया उसे इश्क़ हो गया है इस घर से |
अमोल ने नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए | मकान मालिक याने अय्यर साहब ने प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर गड़ाई और सिर्फ इतना पूछा – यस ?
“जी, हम बाहर टु-लेट का बोर्ड देख कर आये हैं, क्या आपके पास किराए पर देने के लिए कमरे हैं ,” अमोल ने पूछा |
सिर्फ हाँ कहते हुए उन्होंने आवाज़ लगाई – “ चित्रा...
अन्दर से एकदम पारंपरिक वेशभूषा में श्रीमती अय्यर बाहर निकलीं | वे पूरे नौ गज की सिल्क साड़ी में लिपटी थीं , उनके माथे पर भी वैसा ही चन्दन का तिलक था | नाक में मोर के डिज़ाइन वाली टिपिकल दक्षिण भारतीय नथ थी और बालों में खुशबूदार वेणी |
मिष्टी को लगा जैसे साक्षात देवी के दर्शन कर लिए हों | वो सम्मोहित सी खडी उन्हें देखती रह गयी |

अमोल ने ही फिर अपनी बात दुहराई – आपके पास किराए के लिए कमरे हैं ?
उन्होंने इशारे से अन्दर आने को कहा , साथ ही रूखे से स्वर में आदेश आया कि चप्पल उतार कर आना |
दोनों ने झटपट अपनी अपनी चप्पलें उतारीं और दरवाज़े पर पड़े डोरमैट पर पाँव घिसने लगे , मानों खुद को अच्छा बच्चा दिखाना चाहते हों दोनों |
भीतर पडी केन की सादी कुर्सियों पर उन्हें बैठने का आदेश मिला |
श्रीमती अय्यर ने मिष्टी को सर से पैर तक देखा |  मिष्टी अनमनी हो कर अपनी टी शर्ट को नीचे खींचने लगी और अपनी लम्बी खुली टांगों को कुर्सी के नीचे छिपाने की असफल कोशिश करने लगी |
कुछ कहे बिना ही इस होने वाली मकान मालिकिन ने मिष्टी को पसीने से भिगो दिया था |
खैर उन्होंने वार्तालाप शुरू किया | कौन जानता था कि ये वार्तालाप एक ही सवाल और उसके जवाब के बाद ख़तम होने वाला है......
 “ नाम क्या है आपका ?”  उन्होंने अमोल की ओर देखते हुए पूछा |
“अमोल मजुमदार “ अमोल ने जवाब दिया |
मजुमदार ? याने बंगाली ? श्रीमती अय्यर का लहजा ऐसा था जैसे बंगाली कोई गाली हो.......और साथ ही वो कुर्सी छोड़ कर खड़ी हो गयीं |
बेचारे अमोल और मिष्टी भी झट से खड़े हो गए और अमोल ने कहा......“ जी हम बंगाली हैं, हम दोनों ही |”
अमोल को लगा जैसे खुद को बंगाली कहकर वो कोई गुनाह कबूल कर रहा हो....

“सॉरी , हम आपको घर नहीं दे सकते ,” चित्रा जी याने श्रीमती अय्यर ने एकटूक फैसला सुना दिया |
मिष्टी की तो आँख ही भर आयी, उसने नर्म से लहजे में पूछा , “ क्यूँ आंटी, हमें आप घर क्यूँ नहीं दे सकतीं ? “
“ हम ब्राह्मण हैं, और तुम लोग रोज़ मांस मच्छी खाने वाले.......मैं अपने घर में इन सबकी बिलकुल इजाज़त नहीं दे सकती , कतई नहीं | आप यहाँ न बनायें तब भी नहीं........आप हम लोगों से एकदम अलग है......” उन्होंने जिस तरह फैसला सुनाया उसके बाद कुछ कहने- सुनने की गुंजाइश ही नहीं थी |
मिष्टी ने कुछ कहने को मुंह खोला कि अमोल ने टोक दिया – “ अब इस घर में रहने के लिए हम अपना खान पान तो नहीं बदल सकते न ? “
और वो मिष्टी का हाथ पकड़ कर बाहर निकल गया |
दोनों उदास मन से आँगन पार करने लगे.......मिष्टी बगीचे में जाकर ठहर गयी और झुक कर थोड़े से हरसिंगार चुन लिए , जैसे कोई याद लिए जाना चाहती हो इस अनजान घर से |
वाकई पहली नज़र का प्यार क्या किसी से भी हो सकता है ? हरसिंगार के पेड़ वाले घर से भी ?

अय्यर्स के घर से बाहर निकल कर दोनों उसी कॉलोनी में टहलने लगे | मिष्टी चुप थी | कौन जाने चुप थी या खुद से बात कर रही हो.....बहला रही हो अपने मन को |
किसी और के दिए दिलासों से कहीं ज्यादा आसान होना अपने आप को समझाना |
आखिर हम खुद से ज्यादा और किसके करीब होते हैं ?

मिष्टी बचपन से ऐसी ही थी | जो चीज़ उसे भाती वो उसे पाने की जिद्द ठान लेती, और न मिलने पर उदास हो जाती, घंटों बात न करती | वो जो करना चाहती वो करके ही रहती है....
अजीब खब्ती किस्म की लड़की हो यार तुम ...अमोल उसे अक्सर छेड़ता !
मगर मन की इतनी निश्छल थी कि उदासियों के बादल छटते ही खुद-ब- खुद खिल जाती, इन्द्रधनुष की तरह | जैसा नाम वैसा मन था उसका – एकदम मीठा | मिस्री की तरह साफ़ सफ़ेद लड़की , जो ज़रा में घुल-मिल जाती सबके साथ | यूँ ही तो सबकी चहेती नहीं थी वो |
मगर आज उन चित्रा अय्यर आंटी ने तो सिरे से नकार दिया था उनको......उदास होना तो बनता ही था उसका |
यूँ ही टहलते टहलते अय्यर्स के ठीक सामने वाले घर पर अमोल की नज़र पड़ी , वहां भी बोर्ड लगा था – “मकान किराए से देना है |” साथ ही एक फोन नंबर भी लिखा था |
दोनों वहीं पुलिया में बैठ गए और अमोल ने नंबर घुमाया | मिलिट्री के किसी मेजर का नंबर था | बस पांच दस मिनिट के संवाद में ही पूरी बात तय हो गयी | किराया अमोल को सूट किया और अमोल की बातें उन्हें भा गयीं | पड़ोस के घर से चाभी लेकर वे कभी भी शिफ्ट हो सकते थे ऐसा मेजर साहब ने बताया | किराया हर माह बैंक में जमा करना था |
फोन रख कर अमोल ने मिष्टी को आँख मारते हुए कहा , लो भाई अब सामने से तुम मिसिस अय्यर को घूरती रहना और माछेर झोल की महक उन तक पहुंचाती रहना |
“अरे नहीं रे बाबा , अगर पड़ोसियों को ऐतराज़ हो तो  अब हम कम ही बनाया करेंगे माँस मच्छी , “ मिष्टी ने सरलता से कहा |
दो-चार दिन तो मियां बीवी को होश ही नहीं था , अपनी गृहस्थी सजाने में जुटे रहे दोनों | पड़ोसी भी भले लोग थे , दोनों वक्त का चाय नाश्ता पहुँचा जाते थे | काम करते करते मिष्टी सामने के घर पर नज़र डालती और एक आह भर कर फिर सामान जमाने लगती |
हँस पड़ता अमोल उसकी नादानी पर | मिष्टी की मासूमियत पर प्यार आ जाता उसे |
“उदास मत हो , हम इस घर में भी एक हरसिंगार का पौधा लगा लेंगे बारिशों में ,” वो दिलासा देता अपनी बावली बीवी को |
यूँ ही दिन गुज़र रहे थे | अमोल सुबह दस बजे निकल जाता शाम छः सात बजे ही लौटता | टिफ़िन साथ ले जाता | सारा काम सुबह ही निपटा कर मिष्टी एक दम खाली हो जाती | वो दिन भर बालकनी में बैठी कवितायें कहानियाँ पढ़ती या पेंटिंग करती | वो माहिर थी मधुबनी पेंटिंग्स बनाने में | उसकी उँगलियों में जादू था | वो सभी को तोहफों में अपनी बनाई पेंटिंग ही भेंट करती, पाने वाला निहाल हो जाता | कभी-कभी वो अपनी पेंटिंग्स आर्ट गैलरी में नीलाम करती और पैसा अनाथ आश्रम में दे आती | ऐसा करके मिष्टी का मन संतुष्टि से भर जाता |
मिष्टी के भीतर कहीं एक चंचल लड़की थी तो कहीं एक गंभीर और समझदार औरत भी |
मिष्टी और अमोल को त्रिची आये कोई तीन महीने बीत चुके थे | आस पास के सारे दर्शनीय स्थल वे  देख चुके थे | नए लोग , नयी भाषा, वेशभूषा , खान-पान सबको बखूबी समझ लिया था दोनों ने और दिन मज़े में गुज़र रहे थे |
इतने दिनों में कई बार मिसिस अय्यर  दिखीं और मिष्टी ने मुस्कुराते हुए नमस्कार भी किया मगर उन्होंने रूखा सा “नमस्कारम” कहकर मुंह मोड़ लिया |
इस औरत की प्रॉब्लम क्या है ? अमोल कभी कभी चिढ़ जाता |
रिवाज़ों से जकड़ी हुईं है बस | देखने में तो भली लगती हैं , कौन जाने उनके ऐसे व्यवहार की कोई वजह हो | मिष्टी उनकी बेवजह वकालत करते हुए कहती |
“तुम उनका इतना पक्ष क्यूँ लेती हो.....वो तुम्हें अपने घर कभी एक कदम भी नहीं रखने देने वाली हैं मिष्टी मोजुमदार , बंगालन !! अमोल ने ठहाका लगाते हुए कहा.....
एक रोज़ बातों बातों में पड़ोसन ने मिष्टी को बताया कि मिसिस अय्यर की एक चौदह-पंद्रह साल की बेटी है जो न सुन सकती है न बोल सकती है | चार पांच साल की थी तभी एक सर्जरी के बाद से ऐसा हो गया | तबसे उन्होंने कहीं आना जाना, लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया |
उनका व्यवहार ऐसा हो गया है जैसे कोई हीनभावना से ग्रस्त इंसान का होता है |
बच्ची को पढाने भी कोई ट्यूटर घर आने लगे | अय्यर साहब ने वोलंटरी रिटायरमेंट ले लिया और घर बैठ गए | अब शायद पैसों की कुछ तंगी महसूस हुई होगी इसलिए किरायदारों का सोचा होगा |

पड़ोसन की बात मिष्टी के मन में बार बार गूंजती रही , बल्कि हथौड़े की तरह उसे चोट पहुंचाती रही |

इंसान अपनी कमियों को दूर करने की जगह उनको छिपाने का प्रयास क्यूँ करता है आखिर ! सबसे श्रेष्ठ जीव होते हुए भी हताशा इंसानों में सबसे ज्यादा देखी जाती है | मिष्टी के विचार जाने कहाँ कहाँ दौड़ते रहे .............
संयोग से अगले दिन ही घर के बाहर मिसेस अय्यर और उनके साथ एक लड़की दिखी , जिसे देखते ही मिष्टी समझ गयी कि ये उनकी बेटी है | बड़ी बड़ी आँखों और घने लम्बे बालों वाली प्यारी सी लड़की थी वो |
“ नमस्कारम आंटी “ मिष्टी ने मुस्कुराते हुए कहा |
वे भी हौले से मुस्कुराईं , या ये मिष्टी की खुशफ़हमी भी हो सकती थी | क्यूंकि वे जल्दी से घर के भीतर जाने लगीं | मिष्टी ने बच्ची को देख कर हाथ हिला दिया |
मिष्टी को अपनी मुस्कराहट के बदले उस बच्ची की खिलखिलाहट सुनने मिली.....वो मिष्टी को देख कर जोर जोर से हाथ हिला रही थी और हंसती जा रही थी | मां बेटी के भीतर चले के बाद भी मिष्टी बड़ी देर तक वहीं खड़ी  हाथ हिलाती रही ........
“कैसा अन्याय है ये देवी मां तुम्हारा ! “ मिष्टी बुदबुदाई....... इतनी प्यारी बच्ची को ऐसा अधूरापन दे डाला ! बिना दुखों और अभावों के सृष्टि की रचना नहीं की जा सकती थी क्या ? – मिष्टी बेहद भावुक और उदास हो गयी |
मगर आने वाले दिन उतने उदास नहीं थे | मिसेस अय्यर की बेटी अब अक्सर बालकनी में निकल आती और मिष्टी को देखकर हाथ हिलाती |
मिष्टी भी अपना हाथ हिलाती......
फिर वे दोनों इशारों में बात करते |
“ओह ! ये लड़की तो करीब भी आयी तो बात इशारों में ही होगी......” इस ख़याल से ही मिष्टी अनमनी हो जाती, उसका सुन्दर चेहरा बुझ सा जाता मानों सूरज के ढलने के बाद पंखुडियां समेट ली हों कमल ने|
एक रोज़ मिष्टी बाहर बगीचे में बैठी थी कि पीछे से उसकी आँख किसी ने बंद कर दी......मिष्टी उन नन्हें हाथों को पकड़ कर सामने लायी तो चौंक पडी वो..... मिसेस अय्यर की बेटी थी |
तुम ? तुम यहाँ कैसे आयीं ? जाओ, जल्दी जाओ यहाँ से वरना तुम्हारी माँ गुस्सा हो जायेंगी |
मिष्टी बोलते बोलते रुक गयी........ओ माँ , मैं तो भूल ही गयी कि ये सुन नहीं सकती |
लड़की मुस्कुराती रही , फिर उसने पास पड़ी टेबल से कागज़ और पेन उठाया और मिष्टी को थमा दिया...
तुम यहाँ क्यूँ आयीं , माँ नाराज़ होंगी ! मिष्टी ने लिखा .....
मुझे आप अच्छी लगती हो......माँ सो रही हैं | उस बच्ची ने जवाब दिया |
थोड़ी देर इसी तरह मिष्टी और वो आपस में सवाल जवाब करते रहे | जैसे कोई इम्तेहान हो.....एक सरल सा इम्तेहान, जिसके सभी जवाब दोनों को आते हों |
बच्ची ने बताया उसका नाम बुलबुल है |
बुलबुल जो गा नहीं सकती.....मिष्टी की आँखें बरस पडीं |
उस रोज़ संध्या आरती के समय उसका ध्यान पूजा में ज़रा भी नहीं लगा......आज वो भगवान से भी खफा थी |

अब बुलबुल कभी कभी आने लगी थी मिष्टी के पास | वो बड़े जतन से मिष्टी को पेंटिंग्स बनाते देखती | एक दिन एक कोरे कागज़ पर बुलबुल ने बहुत प्यारी मछली बनाई और मिष्टी को दे दी.....बहुत ही सुन्दर ड्राइंग थी वो, मिष्टी देखती रह गयी...... फिर अचानक उसने कागज़ पर लिखा माँ और मछली के चित्र को काट डाला | मिष्टी बुलबुल का चेहरा देखने लगी फिर दोनों ज़ोरों से हंस पड़ी |
बुलबुल बहुत अच्छी कलाकार थी , मिष्टी ने उसके हुनर को पहचान लिया था |
मिष्टी के घर बुलबुल का आना यूँ ही जारी रहा | वो कभी भी अचानक आ धमकती , शायद जब भी वो अपनी माँ से नज़रें बचा कर आ पाती , आ जाती थी | वो बमुश्किल पंद्रह बीस मिनिट ही रुकती और उनकी बातें रेखाचित्रों के माध्यम से ही होती | और बुलबुल में कमाल की अभिव्यक्ति क्षमता थी | 
मिष्टी कुछ इशारे करने की कोशिश करती तो वो अनदेखा कर जाती और उसकी तरफ कागज़ बढ़ा देती , जैसे उसे मज़ा आ रहा हो इस खेल में | हाँ खेल ही तो था ये उसके लिए |  बस इस बहाने बेहतरीन स्केचिंग करते थे दोनों |
मिष्टी को बुलबुल का यूँ छिप छिप कर आना ठीक नहीं लगता था तो एक दिन वो अचानक अय्यर्स के घर पहुँच गयी |
बाहर के कमरे में ही दोनों मियां बीवी और बच्ची बुलबुल बैठे हुए थे | उसे देखते ही वे तीनों ही चौंक पड़े | और चौंकने के लिए सबके पास अपने अपने कारण थे | उनमें से कोई कुछ कहता इसके पहले ही मिष्टी बोल पड़ी |
“ आंटी आप शायद जानती नहीं मगर बुलबुल कभी कभी मेरे घर आती है | “ मुझे उसका आना बहुत अच्छा लगता है मगर वो आपकी इजाज़त लेकर आये तो मुझे खुशी होगी | “
ये सुनते ही चित्रा अय्यर की भौंहें तन गयीं, उन्होंने इशारों से बुलबुल को डपटना शुरू किया | ये देख मिष्टी उनके बीच में आकर खड़ी हो गयी |
“आप ये क्या कह रही हैं ? मैंने उसे मछली खिलाई होगी ?”  मिष्टी की आवाज़ में गुस्सा और दुःख दोनों था |
 “ इतनी नादान नहीं हूँ मैं आंटी , और आपके रीति रिवाज़ और संस्कारों की इज्ज़त करती हूँ  | ”
मिष्टी की आवाज़ रुन्धने लगी थी |
श्रीमती अय्यर ने हैरानी से मिष्टी की ओर देखा ! “ तुम कैसे समझीं कि मैंने क्या कहा ? “ उन्होंने पूछा !
जब से बुलबुल से मिली हूँ थोडा बहुत समझने लगी हूँ, मिष्टी ने झिझकते हुए कहा |
मिसिस अय्यर के तने हुए चेहरे में ज़रा सी नरमी आयी | मगर आवाज़ अब भी वैसी ही थी , एक दम सख्त !
“देखिये मुझे पसंद नहीं कि मेरी बेटी किसी से मिले जुले , फिर जब मैंने आपको किरायेदार के रूप में ही नहीं स्वीकारा तो बुलबुल से दोस्ती के लिए कैसे विश्वास कर सकती हूँ | “
“आप बेशक मेरे बारे में कोई भी राय रखें मगर आप इस मासूम को क्यूँ इस तरह एकांतवास की सजा दे रही हैं ? आप उसे स्कूल नहीं भेजतीं , किसी से मिलने नहीं देतीं , आखिर क्यूँ ? “ मिष्टी का चेहरा सुर्ख लाल हो गया था, और वो आवेष से काँप रही थी |
बिना कुछ कहे मिसिस अय्यर भीतर चली गयीं और मिष्टी हारे हुए मन से घर लौट आयी |

उस दिन बुलबुल भी शायद बिना सुने इतना तो समझ ही गयी थी कि उसके मिष्टी के घर आने-जाने को लेकर ही बहस छिड़ी है |
मगर वो बच्ची क्या करती !
बस यूँ ही आती रही चुपके चुपके और पेंटिंग्स बनाती रही खामोशी से |

मिष्टी बेचैन रहती.......
तो एक दिन बुलबुल के वहां रहते हुए ही उसने मिसिस अय्यर को फोन करके बुला लिया |
धुन की बड़ी पक्की थी मिष्टी , और उसूलों की भी........अनूठा व्यक्तित्व था इस लड़की मिष्टी का |
मिसेज़ अय्यर के आते ही उसने वही अधूरी बहस छेड़ दी |
“आप बुलबुल को यूँ दुनिया से काट कर अच्छा नहीं कर रहीं है आंटी

मैं अपनी बेटी का अच्छा – बुरा जानती हूँ.....
मेरी बेटी दुनिया के और लोगों जैसी नहीं है न इसलिए.....
मिसिस अय्यर धीरे से बुद्बुदायीं.....
“लोग उसकी कमी का चर्चा करें ये मुझसे सहन न होगा.....”

मिष्टी उनकी सोच पर हैरान थी , मगर जानती थी कि ये एक माँ की ओर से बेटी को पहनाया गया सुरक्षा कवच है और कुछ नहीं....
आंटी आपने कभी सुना है कि किसी ने हेलेन केलर या बीथोवेन की कमियों की चर्चा की है ? मिष्टी ने बड़े स्नेह से कहा.....
मिष्टी ने उन्हें बुलबुल की बनाई पेंटिंग्स दिखाई |
आंटी आपकी लड़की में असाधारण प्रतिभा है.....इसे खिलने दीजिये | इस पर और मुझ पर यकीन कीजिये....
मिसिस अय्यर ने एक गहरी सांस भरी जैसे कुछ कहने की शक्ति जुटा रही हों |
मन जब उलझनों से घिरा रहता है तब शब्द भी कहीं उलझ से जाते हैं, मानो हलक से बाहर निकलने को राज़ी न हों.....खुद से ही संघर्ष करता है मन | और जिसमें कभी हार होती है और कभी जीत.....

उन्होंने बस इतना ही कहा – बुलबुल चाहे तो कभी कभार थोड़ी देर को तुम्हारे घर आ सकती है मगर उसको अपनी तरह मत बना देना तुम |
मेरी तरह याने ? मिष्टी ने पूछना चाहा मगर चुप रह गयी | कई बार पूर्वाग्रह से ग्रस्त इंसान को यूँ ही छोड़ देना बेहतर होता है जिससे उसे वक्त और मौका मिले अपनी सोच बदलने का |
अब बुलबुल नियम से मिष्टी के पास आने लगी | वो रोज़ थोड़े से हरसिंगार चुन कर ले आती और मिष्टी निहाल हो जाती | खुश होने के लिए दरअसल बहुत थोड़े की ज़रुरत होती है |
मिष्टी उसको मधुबनी पेंटिंग की बारीकियां सिखाने लगी | ईश्वर ने एक ओर तो उस प्यारी लड़की को बोलने सुनने से मोहताज़ रखा था मगर दूसरी ओर उसको कला की बेहतरीन समझ दी थी | ऊपरवाला हिसाब का बड़ा पक्का जो ठहरा |
बुलबुल ज़्यादातर मछलियाँ बनाती , न जाने कितने रंगों की छोटे बड़ी मछलियाँ | मिष्टी खूब हंसती |
तुम्हारी माँ मुझे मार डालेगी बुलबुल, यूँ मछलियाँ न बनाया कर हमेशा , मिष्टी उसे प्यार से उलाहना देती |
जवाब में बुलबुल ने लिखा – मछलियाँ मुझे पसंद हैं क्यूंकि वो भी नहीं बोलती |
मिष्टी ने उसे बुलबुल बनाना भी सिखाया, कोयल और मोर भी |
मिष्टी बुलबुल के आर्टवर्क इकट्ठे करती जा रही थी | कलकत्ता की एक आर्ट गैलरी जो फोक आर्ट को बढ़ावा देती है और उसको सहेजने के सभी प्रयास करती है , वहां मिष्टी ने बात की और बुलबुल की कुछ पेंटिंग्स भेजी दीं |
जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ......अब बुलबुल की पेंटिंग्स प्रदर्शिनी में जाने वाली थीं |
एक्सिबिशन का नाम बुलबुल ने ही दिया “ मिष्टी मछली ” | मिष्टी और अमोल खूब हँसे उसकी इस मासूमियत पर | लोगों ने खूब पसंद किया बुलबुल की कला को.....और मनमाने दाम देकर खरीदा भी | मिष्टी जानती थी कि ये तो सिर्फ शुरुआत है......

*अब मिष्टी उदास नहीं होती |
*बुलबुल बेरोक-टोक मिष्टी के पास आती है |
*श्रीमती अय्यर ने उसे स्पेशल स्कूल भेजना शुरू कर दिया है |
*मिसिस अय्यर अब मिष्टी को देख कर खुल कर मुस्कुराती हैं और कभी कभी रसम – चावल भी     खिलाती हैं |
*मिष्टी के आँगन में भी बुलबुल का दिया हरसिंगार झरने लगा है |

अनुलता राज नायर


 


  
  
  

    

Sunday, October 12, 2014

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में मेरी किताब "इश्क तुम्हें हो जाएगा " की समीक्षा...............

बदल रहा है मौसम
सर्द हवा की छुअन !
ठीक उस लड़की के नर्म स्पर्श की तरह
जिसने अभी अभी सीखा है प्रेम करना.....

यूँ आते हैं त्योहारों वाले दिन !
और यूँ आती हैं खुशियाँ............................................


दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में "रचनाकर्म " में मेरी किताब "इश्क तुम्हें हो जाएगा " की समीक्षा सीनियर रिपोर्टर 
Smita जी द्वारा.........
http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/28-sep-2014-edition-National-page_9-9525-73308072-262.html
http://epaper.jagran.com/epaper/28-sep-2014-262-delhi-edition-national.html



Friday, September 19, 2014

मेरी लिखी कहानी - महक मिट्टी की - याद शहर में 92.7 big fm

आजकल लिख रही हूँ कहानियाँ  नीलेश मिश्रा के याद शहर के लिए....
92.7 BIG FM में ये कहानियां पढ़ते हैं नीलेश अपनी रूहानी आवाज़ में...................
आप भी सुनिये मेरी लिखी कहानी "महक मिट्टी की "

लिंक दे रही हूँ.....पढने से ज्यादा आपको सुनने में आनंद आएगा !

https://www.youtube.com/watch?v=cvPYY9jqcmo&index=2&list=PLRknjC5MPHa29hPAM0Mg1IfFEUuFkqeBx



महक मिट्टी की.....
एअरपोर्ट से लौट रही थी आरती......उसकी आँखें नम थीं मगर दिल गुनगुना रहा था | ठंडी हवा के झोंके  आरती के गालों पर यूँ पड़ रहे थे मानों हवा भी उसे थपथपा कर कर कह रही हो – वेलडन आरती !! आसमान पर बादलों के बीच पूरा चाँद चमक  रहा था.......आज आषाढ़ की पूर्णिमा यानि गुरु पूर्णिमा थी, क्या सुखद संयोग है...आरती मुस्कुरा दी !
लेकिन उसके गालों पर आँसू का एक कतरा लुढक आया.... 
मिस यू पापा.....आप खुश हो न अपनी बेटी से? आरती बुदबुदाई.....
आरती को लगा जैसे वो चाँद और तेज़ी से चमका और हौले से मुस्कुराया भी...
आरती भी मुस्कुरा दी ....... “लव यू पापा !”
आरती की कार जितनी तेज़ी से आगे दौड़ रही थी उसका मन उतनी ही तेज़ पीछे की ओर दौड़ रहा था, अतीत की गलियों की ओर......तकरीबन दो साल पीछे......
आरती के पापा को गुज़रे तब सिर्फ दो महीने ही हुये थे| वक्त धीरे-धीरे भर रहा था मन के घाव...... आरती अपनी माँ के साथ आने वाली ज़िन्दगी का ताना-बाना बुनती रहती | 27 बरस की बेहद समझदार और संवेदनशील लडकी थी वो | अपने पापा में उसकी जान बसती थी और उनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की थी उसने | मगर नियति से कौन जीत सका है | जाने वाले तो चले ही जाते हैं और उनके बाद भी जीवन जैसे तैसे चलता ही रहता है |
“माँ , मैं पापा की याद को मन में हमेशा के लिए ताज़ा रखने के लिए कुछ करना चाहती हूँ |” उस रोज़ आरती ने माँ के आँचल से खेलते खेलते अचानक कहा था |
माँ ने बिना कुछ कहे सवालिया नज़रों से आरती की ओर देखा.....
“माँ , मैं एक ऐसा काम करना चाहती हूँ जो पापा के बहुत चाहने पर भी मैंने नहीं किया | उनके जीते जी न सही मगर अब उनकी इच्छा पूरी करना चाहती हूँ और मैं लिखना चाहती हूँ एक किताब...उनके गाँव पर, उनके बचपन पर |”
“मगर इसके लिए तो बेटा तुम्हें केरल जाना पड़ेगा , और तुम्हें मलयालम भी नहीं आती” , माँ ने बस इतना जवाब दिया था |
“वही तो माँ......वही तो सीखना है सबसे पहले ! पापा की ये भी तो एक इच्छा थी कि मैं मलयालम सीखूँ ! मगर मेरा बचपना भी न , उनकी बातें हँसते हँसते टाल जाती थी...फिर पापा ने भी  कभी जिद नहीं की ..ना तुमसे और न मुझसे | पता नहीं क्या सोच कर आरती का गला रूंध गया था | जैसे कोई अपराधबोध पल रहा हो उसके भीतर......
“बड़ी समझदारहो गयी है मेरी बेटी ”....माँ ने आरती को दुलारा |
“हाँ माँ , मुझे बच्चा बनाये रखने वाले पापा जो नहीं हैं अब |” कहते कहते आरती खो गयी  , जैसे मन चल पड़ा हो कहीं दूर........... कोई तो ऐसा ख्याल था जो आरती के ज़हन में पल रहा था और जिसने इतने लम्बे सफ़र का रूप ले लिया था |

आरती अपने माता-पिता की एकलौती संतान थी | पापा केरल से थे  और माँ मध्यप्रदेश की पली बढ़ी थी | पापा नौकरी की तलाश में एम पी  आये और यहीं बस गए | घर में हिंदी अंग्रेज़ी ही बोली जाती रही और मलयालम दोनों भाषाओं के  बीच कहीं दब कर रह गयी | आस- पड़ोस के लोग, दफ्तर के साथी , बाज़ार में दुकानदार , सभी जो भाषा बोलते वही आरती के घर में बोली जाने लगी | जीने के रंग ढंग , खान पान के क़ायदे , तीज त्यौहार वगैरह सभी कुछ मध्य प्रदेश का हो गया |

“ठीक है भई, जैसा देस  वैसा भेस” ...आरती के पापा अक्सर ठंडी सांस भर कर बोलते |
आरती अपने पिता के बेहद करीब थी | पापा उसकी ऊर्जा थे और वो पापा के जीने की वजह | अपने पापा के स्नेह, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन की वजह से ही आरती बेहद मज़बूत, और हौसले से भरी हुयी  लडकी थी |
पापा अपनी मिट्टी से दूर ज़रूर आ गए थे और बहुत खुश और सफल भी थे मगर उनके मन के भीतर एक गहरा लगाव था अपने गाँव से | और दूर चले आने की एक कसक भी थी........
वे आरती को अपने बचपन के ढेरों किस्से सुनाते |
“जानती हो बेटा , हम स्कूल तुम्हारी तरह बस से नहीं जाता था , तैर कर जाता था ....बीच में एक नदी था और नाव में खाली लडकी लोग होता था या फिर बूड़ा लोग | तो बस क्या हम छलाँग लगा देता था नदी में , और तैर कर पार कर जाता |
पापा नदी “था” नहीं ...”थी” और पार करता ‘था’ नहीं ..करते थे “| आरती हँसते हुए बस पापा की हिंदी सुधारने में लगी रहती और पापा उससे बेखबर अपनी किस्सागोई में खोये रहते |
 “हाँ , और किताब केला का पत्ता में  लपेटता था कि भीगे नहीं | पापा बोलते चले जाते |
आरती के पापा उसको बताते कि कैसे वे काली मिर्च की कंटीली बेल से फल तोड़ते , नारियल के लम्बे लम्बे पेड़ों पर सरपट चढ़ जाते | पापा की हर बात से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक आती थी |
“तुम मुझसे मलयालम में बात किया करो तो तुम भी सीख जायेगा धीरे धीरे” .....कभी कभी उसके पापा प्यार से  कहते | “फिर अपना गाँव दिखाने ले जायेगा तुमको , तुम्हारा भी गाँव  “.........कहते कहते पापा कहीं खो जाते | 
मगर कान्वेंट में पढने वाली लड़की आरती , हिंदी ही मुश्किल से  बोलती थी तो मलयालम का सवाल कहाँ था | हाँ पापा की हिंदी जरूर सुधर गयी थी |
पापा उसे केरल की लोक कथाएं सुनाते , वहां के खान पान , संस्कृति , तीज त्योहारों के बारे में बताते रहते थे |
आज जब पापा नहीं हैं तब आरती को एहसास हुआ कि पापा उसको भी अपनी जड़ों से जोड़ने की कितनी चाहत रखते थे और वो अपनी नादानी में उनकी भावनाओं को अनदेखा करती रही |
जिस शिद्दत से पापा ने यहाँ की भाषा को सीखा और संस्कृति को अपनाया , क्या वैसे प्रयास हम नहीं कर सकते थे ... यह सोचकर आरती की आँखों से आँसू लुढ़क आये और वो देर तक माँ की गोद में सर छुपाये रोती रही |
“माँ मैं केरल, पापा के गाँव जाना चाहती हूँ , वो भी जल्द से जल्द |”
“भावनाओं में बह कर कोई फैसला मत करो आरती” माँ ने उसको समझाने की कोशिश की |
“सोच लो तुम कैसे मैनेज करोगी वहां? रहोगी कहाँ ? खाओगी क्या...! पहले प्लान तो कर लो बेटा”|
नहीं माँ.....ज्यादा प्लानिंग और देर की  तो कहीं अपने इरादे से पलट न जाऊं इसलिए मैं परसों ही चली जाऊँगी |”
बेटी का मन माँ ने पढ़ लिया था इसलिए कुछ नहीं कहा और उसका सामान पैक करने लगी | और बस आरती का सफ़र वहीं से शुरू हो गया था |

ख्यालों में खोये खोये ही आरती की एर्नाकुलम तक की लम्बी यात्रा पल में गुज़र गयी | वो जल्द से जल्द अपने पिता के गाँव “आइरूर” पहुंचना चाहती थी | स्टेशन पर उतर कर रिटायरिंग रूम में ही फ्रेश होकर आरती ने टैक्सी ली और चल पड़ी |
गाँव पहुँची तो उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था.....
“इतनी दूर न जाने किसके सहारे चली आयी हूँ | यहाँ कोई होटल तो मिलने से रहा, देखती हूँ कहीं ठहरने का कोई जुगाड़ हो जाय तो अच्छा हो, वरना वापस शहर तक जाना होगा |” आरती खुद से बातें करके खुद को ही तसल्ली देती जा रही थी | 
बहुत पहले बचपन में कभी वो आयी थी यहाँ जब उसके दादा का देहांत हुआ था | उसके बाद फिर आना नहीं हुआ और उस बात को करीब 12-13 साल बीत चुके थे | बाद में पापा ही अकेले आकर पूरी प्रॉपर्टी किसी को बेच कर चले गए थे | क्यूंकि न माँ की इच्छा थी कि केरल में सेटल हुआ जाय न आरती का मन था |
आरती सीधे जाकर अपने पिता के घर के सामने रुक गयी | सीधी सड़क पर बने इस घर को खोजने और फिर पहचानने में उसको ज़रा भी तकलीफ नहीं हुई|

घर के ठीक सामने एक मंदिर था जिसमें किसी भगवान् की नहीं बल्कि एक गाँव की वेशभूषा वाले इंसान की मूर्ती थी | पापा ने उसे बताया था कि ये मंदिर उसके दादाजी ने बनवाया था, इस बहादुर आदमी ने एक आदमखोर शेर से कई गाँव वालों को बचाया था मगर खुद मारा गया | नीची जाति का होने के कारण गाँव वालों ने मंदिर निर्माण का बड़ा विरोध किया था मगर दादाजी की ज़िद्द के आगे किसी की न चली थी | आरती ने मंदिर के आगे एक सल्यूट मारा ...उसे गर्व हुआ कि वो ऐसे दादा की पोती है |
आरती का गला सूख रहा था....बोतल निकाल कर उसने पानी पिया और ऊंचे बने घर की सीढियाँ चढ़ने लगी | दरवाज़ा यूँ ही खुला पड़ा था...लम्बे बरामदे के कोने में एक आराम कुर्सी पड़ी थी जो शायद तब भी थी जब उसके दादा यहाँ रहते थे
बरामदे में खड़े होकर उसने आवाज़ लगाईं...............हेल्लो !! कोई है.......??
भीतर से एक साठ पैंसठ साल की एक बुज़ुर्ग महिला निकलीं...अपनी ऐनक ठीक करते हुए उन्होंने पूछा – कौन है ? वो मलयालम में बात कर रही थीं...थोड़ा बहुत आरती को समझ आया और थोड़ा नहीं |
उसने अंग्रेज़ी में बातचीत आगे बढ़ाई– मैं आरती ! भोपाल से आयी हूँ !
उसने अपने पिता का परिचय दिया और उन्हें याद दिलाया कि ये घर और इससे जुडी ज़मीनें कभी उसके पिता की हुआ करती थीं |
उस औरत की आँखों में चमक आ गयी | उन्हें सब याद था | उन्होंने आरती को बैठाया...कॉफ़ी पिलाई और फिर उसके यहाँ इतनी दूर, वो भी अकेले आने का मकसद पूछा |
उनका अपनापन देख कर आरती को तसल्ली हुई कि इस गाँव में उसे कोई पहचानने वाला तो मिला|
वो रोज़ी आंटी थीं , उनके पति ने ही आरती के पापा से प्रॉपर्टी खरीदी थी | अब वे रहे नहीं और आंटी यहाँ अकेले  रह रही थीं |
सबसे ज्यादा हैरानी आरती को तब हुई जब रोज़ी आंटी ठीक ठाक हिन्दी में बात करने लगीं | और उन्होंने बताया कि उन्हें अच्छी समझ है हिंदी भाषा की |
“दरअसल मैंने कुछ साल यहीं गाँव के स्कूल में हिन्दी पढ़ाई है |” रोज़ी आंटी ने बताया |
रोज़ी आंटी ने आरती का खुले दिल से स्वागत किया और वहीं अपने घर में रहने और खाने पीने का बंदोबस्त भी कर दिया |
सारा घर ख़ाली पड़ा है...तुम जहाँ चाहे रह सकती हो | और जो चाहोगी वही मैं तुमको पका कर खिला सकती हूँ , आंटी ऐसे खुश थीं मानों उनका कोई अपना लौट आया हो |
आरती को लगा उसे जैसे कोई देवदूत मिल गया हो , उसकी समस्या का आसान सा हल लेकर लेकिन गाँव में रहना इतना भी आसान नहीं था |

आरती अब रोज़ी आंटी के साथ गाँव में यहाँ वहां घूमती, उनसे ढेरों सवाल करती | और आंटी भी बड़ी खुशी खुशी उसको सब कुछ विस्तार से बतातीं | एक ही परेशानी थी ..आरती के लिए मलयालम अभी भी एक मुश्किल भाषा थी | रोजी आंटी उसके लिए दुभाषिये का काम कर रही थीं |
आरती रोजी आंटी से पापा के बारे में पूछती और कभी रोजी आंटी की जिन्दगी की बारे में भी जानना चाहती |
आंटी ने बताया कि उनका परिवार बचपन से पापा के घर के पड़ोस में रहता आया है इसलिए जब ज़मीन बेचने की बारी आयी तो पापा ने सबसे पहले उनसे ही पूछा | शायद मन में ये उम्मीद रही हो कि कभी यहाँ आना हुआ तो कम से कम अपने लोग तो दिखेंगे |
“रोज़ी आंटी आप यहाँ अकेले रहते हुए बोर नहीं होतीं ?”  आरती ने एक रात खाना खाते हुए उनसे पूछा....
“यहाँ कितना सूना होता है सूरज ढलने के बाद.....कैसा सन्नाटा होता है ! आपको डर नहीं लगता ?”
रोज़ी आंटी की आँखों में अचानक उदासी तैर गयी थी |
“अकेले रहना किसे अच्छा लगता है बिटिया , ऐसी ज़िन्दगी कोई मांग के नहीं लेता.....किस्मत ऐसे फैसले हम पर थोप देती है | आंटी ने बुझी आवाज़ में कहा.......
उस रात आरती की आँखों में रोज़ी आंटी की उदासी घर कर गयी थी | उसने सारी रात तारे गिनते हुए काटी |
एक सुबह चाय और केले के चिप्स खाते खाते आरती ने उनसे पूछा –“आंटी आपका एक बेटा भी है न ? आप उनके पास क्यूँ नहीं चली जातीं ?”
आंटी थोड़ी देर चुप रही ...आरती को लगा शायद उसने अपनी हद पार कर दी है ....और आंटी इस सवाल का जवाब ही नहीं देना चाहतीं |
“कौन माँ नहीं चाहेगी अपने बेटों के साथ रहना | किसे नहीं अच्छा लगता भरा पूरा घर , नाती पोतों के साथ खेलना | मगर ये सुख मेरी किस्मत में नहीं है शायद ......आरती को लगा आंटी उससे नहीं बल्कि ख़ुद से बात कर रही थीं.......
क्या हुआ आंटी ? बताइए न ! – झिझकते हुए आरती ने दबाव डाला | मैं आपकी इतनी अपनी तो हूँ कि आप अपना दुःख मुझसे बाँट सकें |
मेरा बेटा तो बेटा कहलाने लायक ही नहीं है | यहाँ से अपने हिस्से की ज़मीन बेच कर जो गया तो फिर लौटा ही नहीं | न अपना पता ठिकाना बताया, न हमारी खबर ली | लोगों से पता लगा मुंबई में है और सुखी है | मुझे और क्या चाहिए |
आंटी की आवाज़ में अचानक गुस्सा तैर गया था |
बस आंटी ? आपको उसके सुख के सिवा और कुछ नहीं चाहिए ? आपका सुख कोई मायने नहीं रखता ??
आंटी खामोश रहीं.....कुछ कहा नहीं उन्होंने ......आंटी के दुःख का एक ही इलाज था ....मेहमान बनकर आयी आरती और उसको मलयालम सिखाने का जोश |
आरती को वहां रहते हुए कई दिन हो गए थे...उसने काफ़ी मलयालम सीख ली थी और आंटी के पास रखीं पापा की कुछ चिट्ठियाँ पढ़ना भी वह सीख गयी थी |

गाँव के ठीक बीच से एक नहर जाती थी , आरती ने कई दफा अपने पापा से उस नहर का ज़िक्र सुना था कि कैसे वे अपने दोस्तों के साथ नहर की संकरी दीवार पर दौड़ लगाया करते थे.......
उस रोज़ नहर पर पहुँचते ही आरती ने अपनी डायरी और पेन आंटी को पकड़ाया और चढ़ गयी उसकी दीवार पर, और दौड़ने लगी.......वो पूरी तरह जीना चाहती थी अपने पापा का बचपन |
आंटी ने डर कर आँखों पर हथेलियाँ रख लीं ...आरती हंस पड़ी और जोर से चिल्लाई......”डरिये मत आंटी, शहर के ट्रेफिक में  चलने वाली इस लड़की को गाँव की इस खाली पगडंडी पर कुछ नहीं होगा | “
उस दिन आरती को ऐसा लगा था कि उसने पापा को वापस पा लिया है |
उस दिन पहली बार ख्यालों में अपने पापा से मलयालम में बात करती रही थी आरती , ढेर सारी बातें.....!

अगले कई दिन तक आरती अपनी किताब लिखने में व्यस्त रही | रोज़ी आंटी उसका पूरा ख़याल रखतीं और वक्त वक्त पर उसको कई छोटी बड़ी बातें बताती रहतीं | कभी आरती बाज़ार आते जाते घर की चीज़ें भी ले आती |
आंटी खूब नाराज़ होतीं , उलाहने देतीं | इस मीठी तकरार के बीच दोनों का रिश्ता और गहरा होता रहा | आरती को यूँ लगता कि उसने अपने गांव में किसी करीबी रिश्तेदार को पा लिया है जो अपनी मुफलिसी में भी दरियादिली से उसका ख़याल रखती हैं |
रात दिन आरती अपनी किताब के लिए matter इकठ्ठा करती रहती | रोज़ी आंटी उसे बाकायदा मलयालम भाषा के पाठ पढ़ातीं, उससे सवाल जवाब करतीं , उसको वहां की लोक संस्कृति से जुड़ी हुई बातें बतातीं | शायद उनसे बेहतर टीचर आरती को कोई मिल ही नहीं सकती थीं |
बाद में आरती उन्हें प्यार से गुरु माँ कहने लगी और रोजी आंटी इस बात से बहुत खुश होतीं |
आंटी की याददाश्त बहुत तेज़ थी और दिमाग भी | इस उम्र में भी उन्हें हज़ारों कहानियां, किस्से, और कवितायें रटी हुईं थीं | थोड़े समय में ही उन्होंने आरती को मलयालम और केरल से पूरी तरह जोड़ दिया था |
“आंटी , पता नहीं मैं आपका एहसान किस तरह चुका पाऊँगी |” एक रोज़ आरती ने बहुत भावुक होकर उनसे कहा |
“कैसा एहसान बेटा...बल्कि तुम आयी यह मेरे लिए अच्छा हुआ .......मेरे घर के सन्नाटे कम हो गये|
तुम्हारी हंसी से ये घर खिलखिलाने लगा है | काश मैं तुमको हमेशा के लिए रोक पाती”......आंटी की आवाज़ भर आई थी |
“चलिए कॉफ़ी पीते हैं, फिर मंदिर भी तो जाना है” – कहते हुए आरती उठ गयी , अपने आँसू दिखा कर वो आंटी को और दुखी नहीं करना चाहती थी |
उन दिनों गाँव के मंदिर में उत्सव चल रहा था | केरल के मंदिरों में ये ख़ास अवसर होता है | रात भर वहां तरह तरह के लोक नृत्य होते हैं ,जिनमें गाँव के ही पुरुष ,स्त्रियाँ और बच्चे हिस्सा लेते हैं | बहुत रौनक रहती है उन दिनों गाँव में |
रात रात जाग कर आरती ने भी कथकली, थैय्यम और तिरुवादिरा का आनंद लिया |
“तुम एकदम सही वक्त पर आयी हो आरती,” आंटी खुश होकर उससे कहतीं |
वहां रह कर आरती ने तरह तरह के अप्पम बनाना सीखे, केले के पत्ते पर खाना और उसमें परोसना भी सीखा |
“जानती हो पत्ते में हर डिश की अपनी एक तय जगह होती है और पत्ते को रखने की दिशा भी तय होती है |” आंटी उसे जितने चाव से बतातीं आरती उतने ही चाव से सब कुछ समझती और लिखती जाती |
अगले दिन आरती केरल के प्रसिद्द अरमुला मंदिर गयी | वहां धातु को घिस कर आईना बनाने की नायाब तकनीक देखी |
आरती को याद आया कि पापा ने बताया था कि शुभ होता है इस आईने का घर में होना | आरती ने एक सुन्दर सा आइना खरीद लिया और उसमें अपनी सूरत देखने लगी |
मंदिर से मिले चन्दन के आड़े टीके और गुच्छा भर वेणियों से सजी आरती अपना अक्स देख कर मुस्कुरा उठी |
“आंटी , आज पापा मुझे इस रूप में देखते तो खुश हो जाते ” कहते कहते आरती का गला रुंध गया|
आंटी ने उसकी बलाएँ ली और माथा चूम लिया | आंटी के इस प्यार के वजह से आरती की जिन्दगी को एक नया मकसद मिल गया था |


अगले दिन सुबह वो उठकर  बरामदे में आयी तो आंटी एक बॉक्स में कुछ पैक कर रही थीं | आरती वहीं फर्श पर उनके पास बैठ गयी | “क्या है ये सब आंटी ?”
“ये सब तुम्हारे लिए है, मेरी तरफ से तोहफा समझ लो ! ...... ध्यान से देखो इन तस्वीरों को | ये सब तुम्हारे पापा की या उनके बचपन से जुड़ी तस्वीरे हैं | कुछ चिट्ठियाँ हैं,  और भी कई छोटी छोटी चीज़ें हैं.......
ये सब मुझे परछत्ती पर पड़े एक संदूक में मिली थीं जिन्हें शायद तुम्हारे पापा देख नहीं पाए होंगे|”
आरती की आँखें भीग गयीं | भाषा ज्ञान के अलावा आंटी ने उसकी झोली अनमोल सौगातों से भर दी थी | वो आंटी के पैरों पर झुक गयी, आंटी ने उसे गले लगा लिया और पता नहीं कितनी देर दोनों आंसुओं से एक दूसरे का कंधा भिगोती रहीं |
अगले सुबह आरती जल्दी उठ कर सामने की पहाडी पर बने घर गयी | ये उसकी दादी का घर था और यहाँ पापा का जन्म हुआ था | वहां खड़े होकर आरती ने गहरी सांस ली....उसे लगा कोई अपनी सी , जानी पहचानी महक उसकी नाक से सीधे ज़हन में पहुँच गयी | उसने ज़मीन से मिट्टी उठायी और अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं |
आरती सोचने लगी – “ऐसे ही एक मुट्ठी मिट्टी पापा भी लेकर आये थे जब उन्होंने ज़मीन का आख़री टुकड़ा बेचा था और उस मिट्टी को उनके साथ ही विदा किया था हमने.......”
आरती सिसक सिसक कर रोती रही ......घर के बाहरी दरवाज़े की चौखट पर पापा की जन्म तिथी खुदी हुई थी , आरती ने हौले से उन शब्दों को सहलाया | पूरी पहाडी में आरती एकदम अकेली थी मगर उसको ज़रा भी न डर लग रहा था न अकेलापन | बस बरसों बाद अपने घर लौट आने जैसा एहसास तारी था |
उस दिन आरती बहुत अनमनी रही | उसे एहसास हुआ था कि पापा का मन कितना कलपा होगा इस ज़मीन को छोड़ने में | वो सोचती रही – “काश मैं उनके जीते जी यहाँ आ पाती और उन्हें तसल्ली दे पाती कि पापा आप फ़िक्र न करें, मैं सींचती रहूंगी उन जड़ों को जिनसे आपका जीवन अंकुरित हुआ है |”
रात गहरा रही थी और आरती करवटें बदलती रही...कुछ दिनों में उसे वापस जाना था | तभी उसे आहट महसूस हुई, रोज़ी आंटी थीं......
“आइये न आंटी ” , आरती उठ कर बैठ गयीं...
“नहीं नहीं उठो मत आंटी ने स्नेह से ज़िद्द करके उसको फिर लिटा दिया |” उसके बालों में हाथ फेरते हुए वो गुनगुनाने लगीं.....
“ओमन तिंक्कल किडावो ”....................
आरती चौंक गयी...वो उठ बैठी....
“आंटी ये गीत क्या है ?” वो हैरान होकर कहने लगी , बचपन से सुनती आयी हूँ अपने पापा से ये कविता ! न अर्थ जानती थी न सुर समझती थी , मगर एक एक लफ्ज़ याद हो गया था मुझे | मैं जब जब पापा से कहती तब तब वो गाने लगते और मैं खूब खुश हो जाती.....
“आरती ये एक लोरी है जो शायद केरल के हर घर में हर बच्चे को उसके माता पिता ने सुनायी होगी.....इसे बरसों पहले केरल के राज कवि ने लिखा था , और जिसे यहाँ के राजा “स्वाति तिरुनल” को सुनाया  जाता था |” आंटी अब भी उसके बाल सहला रही थीं |
अपने पूरे केरल प्रवास के दौरान आरती ने पापा का समूचा गाँव अपने भीतर समेट लिया था | उसके मन में बहुत खुशी थी और उससे भी ज़्यादा था आत्म संतोष |
आरती अपना सामान पैक कर रही थी....रोज़ी आंटी उदास आँखों से उसे देख रही थीं | आरती का मन भर आया.....अचानक वो बोली – “आंटी आप चलिए न मेरे साथ भोपाल, कुछ दिनों के लिए ही सही , आपका मन बहल जाएगा ”.. “प्लीज प्लीज आंटी, आपने मुझे मेरी जड़ों से मिलवाया है आंटी , अब मैं आपको वो डालियाँ दिखाउंगी जिन पर मैं फली ,फूली और झूली हूँ” आरती बच्चों की तरह ज़िद्द करने लगी |
ह्म्म्म......आंटी ने कुछ सोचते हुए सर हिलाया और फिर कहा , “इस मिट्टी को सींचने वाला भी तो कोई बचा होना चाहिए न गाँव में , तभी तो बची रहेगी महक मिट्टी की...
आरती को एहसास हुआ कि मिट्टी की महक दरअसल इंसान के साथ साथ ही चलती है चाहे ज़मीन क्यों न बदल जाए |
आरती ने आगे बढ़कर रोज़ी  आंटी को गले लगा लिया और खुद से यह वायदा किया कि साल में एक बार पापा के गाँव ... अपने गाँव जरूर लौटेगी |

अनुलता राज नायर





नए पुराने मौसम

मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही ! मोह...