कुछ दरका सा
भीतर मेरे,
तड़का हो जैसे
शीशा.
चुभती किरचन-
बढती टीस
लहुलुहान अंतर्मन.......
और आहत सा ये जीवन !
डगमग सा अस्तित्व मेरा
है स्तब्ध खड़ा...
अपने न होने से
मानो मुंह औंधे गिरा..
ये प्रश्न मेरे न होने का
तब हुआ खड़ा......
जब मन का पंछी नील गगन में उड़ा ज़रा....
- तब पर कतरे मेरे अपनों ने
डैनो पर जिन्हें बिठा मैं खूब उडी थी .....
एहसास चुभन का
तब जाकर हुआ बड़ा..
जब आस लगी आगे बढ़ने की.......
- तब डाली बेड़ियाँ पैरों में उनने जिनको ढो काँधे पे, मैं मील चली थी .....
आभास घुटन का हुआ बड़ा
जब हलक से निकले स्वर विरोध के
- तब कटी जुबां उन हाथों से
जिनको जीवन के गीत दिए थे .....
सो अब समझी
जब ज़ख्म मिले ,
क्यों दरका कुछ भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ....
-अनु
सो अब समझी
ReplyDeleteजब ज़ख्म मिले ,
क्यों दरका कुछ भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ....marmik abhiwyakti.
yahi samaj ka dastoor hai...par yaad rakhiye pankhon se nahin hauslon se udan hoti hai...shandaar prastuti..sadar badhayee aaur amantran ke sath
ReplyDeleteआभास घुटन का हुआ बड़ा
ReplyDeleteजब हलक से निकले स्वर विरोध के
तब कटी जुबां उन हाथों से
जिनको जीवन के गीत दिए थे .....वाह !!!!!!!बहुत खूब
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,भावपूर्ण सुंदर रचना,...
RESENT POST...काव्यान्जलि ...: बसंती रंग छा गया,...
बहुत ही मार्मिक ।
ReplyDeleteसादर
अति मार्मिक प्रस्तुति...
ReplyDeleteदवा आज तक जिनसे पाई, वही दर्द जब देते हैं ।
ReplyDeleteगर्दन पर उस्तुरा फेर दें , क्यूँकर पहले सेते हैं ?
बकरे की माँ खैर मनाती, आज कहाँ पर बैठी है --
गैरों से क्या करूँ शिकायत, अपने अपयश लेते हैं ।
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
सो अब समझी
ReplyDeleteजब ज़ख्म मिले ,
क्यों दरका कुछ भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ..
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
भावपूर्ण सुंदर रचना...
ReplyDeletewah......
ReplyDeleteबगैर मुश्किलों के कौन आगे बढ़ा है! धुन पक्की हो,तो भावना पर जीवटता की जीत होती है।
ReplyDeleteडगमग सा अस्तित्व मेरा
ReplyDeleteहै स्तब्ध खड़ा...
अपने न होने से
मानो मुंह औंधे गिरा..
very touching..
.
सो अब समझी
ReplyDeleteजब ज़ख्म मिले ,
क्यों दरका कुछ भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ....
bahtere kaaran hain....
जब ज़ख्म मिले ,
ReplyDeleteक्यों दरका कुछ
भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ....
:))... aakhir samajh me aa hi gaya...
dil ko chhuti hui rachna... bhavuk!
वाह ...बहुत ही बढि़या।
ReplyDeleteजल्दी कहाँ समझ में आता है...जब समझ में आता है तो यही कि सचमुच हम हैं ही नहीं, सारा दर्द इसी अहंकार के टूटने का होता है...अनु जी, आपकी टिप्पणी स्पैम में खो गयी हो सके, तो पुनः लिखें.
ReplyDeleteआह! टीसती हुई मार्मिक प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteआह! टीसती हुई मार्मिक प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति,भावपूर्ण सुंदर रचना
ReplyDeleteएक एक शब्द मार्मिक ....दिल से लिखा है
ReplyDeleteप्रवाहमयी ,मार्मिक और सुन्दर लिखा है..
ReplyDeleteयह चुभन भी कितनी मन को पीड़ित करती है ... मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteजब मन का पंछी नील गगन में उड़ा ज़रा....
ReplyDelete- तब पर कतरे मेरे अपनों ने
डैनो पर जिन्हें बिठा मैं खूब उडी थी .....
"चुभन ही बस अब बाकी है ,
उड़ने की फितरत कहाँ रही,
आंसू भी अब तो सूख गए,
रोने की आदत कहाँ रही...."
दिल को छू जाने वाली इस रचना ने मेरी आँखों को भिगो दिया.......
अपनों के दिये ज़ख़्म भरते भी कहाँ हैं ...रिसते रहते हैं...जीवन के अंतिम क्षण में तो और भी रिसने लगते हैं.....पर दुनिया की रीत यही है ....
ReplyDeletekya kahe , aapne to dard ko jubaan de di .
ReplyDeleteसो अब समझी
ReplyDeleteजब ज़ख्म मिले ,
क्यों दरका कुछ भीतर मेरे...
क्यों दर्द हुआ....
प्रवाहमयी ,मार्मिक और सुन्दर
मन भीग गया इसे पढ़ के ...
ReplyDeleteतब पर कतरे मेरे अपनों ने
ReplyDeleteडैनो पर जिन्हें बिठा मैं खूब उडी थी .....
अंतरस्परशी रचना...
सादर।
एक सच्चाई का चित्रण , जो शायद सबके साथ किसी न किसी रूप में घटती ही है |
ReplyDeleteरोज आईने के सामने , टेढ़े-मेढे मुंह बनाकर
दिल के जख्मों पे मरहम लगाता हूँ |
सादर
-आकाश