मैं एक राह का पत्थर
उस कठिन पथ पर पड़ा
जीवन भर ठोकरें खाता
बनता रहा,
लोगों की राह का रोड़ा....
थी विशाल अट्टालिका
जिसका मैं अंश था
चोट खाकर
चोट खाकर
यूँ टूट कर बिखरा
और राह में जा पड़ा....
मेरे कोने थे नुकीले
चुभते राहगीरों को
वे मुझसे होते आहत..
वे मुझसे होते आहत..
मुझे कोसते
और मारते ठोकरें....
और मारते ठोकरें....
ऐसे ही तिरस्कृत होता,
बिना उफ़ किये
बिना उफ़ किये
मार मौसम की सहता रहा...
गुम हुई वो नोकें..
निःशब्द मैं बहता रहा..
बरसों की वितृष्णा से
मैं थक चुका था...
पर नियति में मेरी
कुछ और बदा था...
ऐसी ही एक ठोकर...
ले गयी मुझे
एक पीपल की छाँव में
थका हुआ मैं मानो ..
सो गया ईश्वर के पाँव में..
तभी कुछ भोले पथिक आये-
वक्त की मार झेल चुके
मेरे कोमल चमकदार तन पर,
सिन्दूर और पुष्प चढ़ाये...
आस्था जताई,गुण गाये....
आस्था जताई,गुण गाये....
विस्मित हूँ मैं ....
वो साधारण राह का पत्थर
बड़े-बड़े शहरों में ऐसा ही होता है...बड़े-बड़े बाबा ऐसे ही बन जाते हैं...
ReplyDeleteआप शायद ठीक हैं...मगर मैंने जिस भाव से रचना लिखी है वो ये कि आस्था पत्थर को भगवान बनाती है....मगर पत्थर भी जब पैना था तब न पूजा गया....जब तकलीफें सह कर चिकना हुआ तब उसको धिक्कारना बंद किया गया.....शांत और सरल हुआ तब पूजा गया ...
Deleteसादर.
बिलकुल सही फ़रमाया...मै भाव को समझ रहा था...पर अपनी बीमारी ही एवें चेपने की है...कृपया इसे अन्यथा ना लें...बहुत खूब रचना और भाव हैं...चित्र ने आपकी भावना को और भी अच्छे से अभिव्यक्त कर दिया है...
Deleteविस्मित हूँ मैं ....
ReplyDeleteवो साधारण राह का पत्थर
आज सबका भगवान कहलाए !!!
अनुपम भाव लिए सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट .
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
यह आस्था ही है जो पत्थर को भगवान बनाती है ...सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबरसों की वितृष्णा से
ReplyDeleteमैं थक चुका था...
पर नियति में मेरी
कुछ और बदा था.......waah bahut sunder ...sarthak rachna ke liye hardik badhai
किसी का विश्वास जीतने के लिए विभिन्न अगम परिस्थितियों से जूझना पड़ता है . नियति बनाने में परिश्रम का भी संयोग होता है . बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव...
ReplyDeleteचिकना पत्थर मतलब विनम्रता का प्रतीक
विनम्रता को मान मिलता ही है...
..पत्थर भी भगवान है,
ReplyDeleteसमय अगर बलवान है !
और यह भी कि कष्ट सहकर हम मज़बूत बनते हैं !
वो साधारण राह का पत्थर
ReplyDeleteआज सबका भगवान कहलाए !!!
सब बाबाओं की माया है .. सार्थक चिंतन की रचना
बेहद शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन सफर साधारण पत्थर से भगवन होने तक का|
ReplyDeleteआभार
बेहतर होगा यदि पत्थर को भगवान के रूप मे पूजने की बजाय हम प्रकृति रूपी भगवान को पूजें।
ReplyDeleteजो मुझे पता है उसके अनुसार--भगवान [भ=भूमि ,ग =गगन,व =वायु ,। (आ की मात्रा)=अग्नि,न =नीर] प्रकृति के पाँच मूल तत्वों का नाम है जिसके सान्निध्य मे हम हमेशा रहते हैं।
सादर
श्रद्धानत जहां हो जाए मन वहीँ भगवान की स्थापना हो जाती है!
ReplyDeleteपत्थर की नियति के माध्यम से सुन्दर बात कही कविता में!
बरसों की वितृष्णा से
ReplyDeleteमैं थक चुका था...
पर नियति में मेरी
कुछ और बदा था...
ऐसी ही एक ठोकर...
ले गयी मुझे
एक पीपल की छाँव में
थका हुआ मैं मानो ..
सो गया ईश्वर के पाँव में..
तभी कुछ भोले पथिक आये-
वक्त की मार झेल चुके
मेरे कोमल चमकदार तन पर,
सिन्दूर और पुष्प चढ़ाये...
आस्था जताई,गुण गाये....
विस्मित हूँ मैं ....
वो साधारण राह का पत्थर
आज सबका भगवान कहलाए !!!... होनी यूँ अंजाम देती है
bahut gambhir...
ReplyDeleteabhar
अनु जी ,
ReplyDeleteसदा की तरह बहुत सुंदर रचना रची है आपने ...
बधाई स्वीकारें !
"मैं रास्ते में पड़ा पत्थर हूँ " इस पर कुछ समय पहले
मैंने भी अपने एहसास लिखे थे ..अगर समय मिले तो यहाँ देखें.....
http://ashokakela.blogspot.in/2011/11/blog-post_30.html
आभार!
खुश रहें!
बहुत बेहतरीन....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
विस्मित हूँ मैं ....
ReplyDeleteवो साधारण राह का पत्थर
आज सबका भगवान कहलाए !!!............वाह राह के एक छोटे से पत्थर में भी शब्दों के माध्यम से जान डालती एक खूबसूरत रचना | बहुत सुन्दर शब्द संयोजन :)
सुंदर रचना
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट
पत्थर की आत्मकथा हमारे जीवन से कितना मेल खाती है। हमें अनचाहे बहुत कुछ मिल जाता है और जिसकी हमें चाह है वह बस चाह बन के रह जाता है।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति!
yahi to niyti hai.....
ReplyDeleteआस्था की बात है जो पत्थर को भी भगवान बनादेते हैं...... अनु..बहुत..खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसही है। इस देश में अधिकतर फुटपाथी मंदिर ऐसे ही विकसित हुए हैं।
ReplyDeleteऐसी ही एक ठोकर...
ReplyDeleteले गयी मुझे
एक पीपल की छाँव में
थका हुआ मैं मानो ..
सो गया ईश्वर के पाँव में..
बहुत सुंदर रचना है अनु जी,
मनुष्य का अहंकार भी इस पत्थर जैसा ही है जब तक सख्त है किसी को भी पसंद नहीं आता !
अहंकार जब पिघलकर बाष्प बनता है उस विराट के साथ एकाकार होता है !
अच्छी लगी रचना !
तभी कुछ भोले पथिक आये-
ReplyDeleteवक्त की मार झेल चुके
मेरे कोमल चमकदार तन पर,
सिन्दूर और पुष्प चढ़ाये...
आस्था जताई,गुण गाये....
विस्मित हूँ मैं ....
वो साधारण राह का पत्थर
आज सबका भगवान कहलाए !!!
ठोकरें खाकर पत्थर भगवान हो जाता है लेकिन आदमी , आदमी भी नहीं बन पाता।
प्रेम की सरल भावना ही ऐसी है कि हम पेड़ से प्रेम करते हैं क्योंकि वह पेड़ है. हम पत्थर से प्रेम करते हैं कि क्योंकि वह पत्थर है. बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteशायद इसी को किस्मत कहते हैं इसलिए जो जब मिले स्वीकार करना चाहिए चाहे ठोकर ही क्यों हो ...
ReplyDeleteप्रेम और आस्था ..हमेशा एक दूसरे के पूरक रहे हैं ......और नियति इनकी रचैता....
ReplyDelete...वह चाहे तो पत्थर को ईशवर बनादे ....नियति के इसी अचम्भे को परिभाषित करती सुन्दर रचना
कविता के भाव बहुत सुन्दर हैं ।
ReplyDeleteहालाँकि आजकल कुछ रास्ते के पत्थर भगवान बनकर दुनिया को बेवक़ूफ़ भी बना रहे हैं । :)
.
ReplyDeleteहोता है…
कई बार भाटे भी भगवान बन जाते हैं…
:)
पत्थर की आत्मकथा के रूप में यह कविता अच्छी लगी…
भाव बहुत सुन्दर हैं .
ReplyDeleteअच्छी व्यंग्य रचना है अनु जी ,यहाँ भगवान बनना और बनाना सबसे आसान है !
ReplyDeletelajbab rachana ke liye badhai anu ji
ReplyDeleteBAHUT HI SUNDAR RACHANA ....BADHAI
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