ये मेरी पहली कहानी है इसलिए कमियां लाज़मी हैं......कृपया पढ़ें और बेबाक टिप्पणियां दें.
महामुक्ति
भटक रही थी वो रूह,उस भव्य शामियाने के ऊपर,जहाँ सभी के चेहरे गमज़दा थे और सबने उजले कपडे पहन रखे थे.एक शानदार मंच सजा था जिस पर उसकी एक बड़ी सी तस्वीर,और तस्वीर पर ताज़े गुलाबों की माला थी और उसके आगे दीपक जल रहा था .
अनायास हंस पड़ी ललिता की रूह.....जीते जी वो कभी एक फूल या गजरा न सजा पायी अपने बालों में.जाने कितने तीज-त्यौहार यूँ ही निकल गए,कोरे....बिना साज सिंगार किये.शायद ये सब उसे मौत के बाद ही नसीब होना था.
आज ललिता की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ का आयोजन किया गया है,जिसमे उसके परिवार- जनों के अलावा साहित्य मण्डली के लोग भी शरीक हैं.सभी बारी बारी मंच पर आकर उसके गुणों का बखान कर रहे हैं और उसका असमय जाना साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्षति बता रहे हैं.
हैरान है वो अपनी ही उपलब्धियां सुन कर.जिसने सारी उम्र नर्म स्वर में कहा गया एक वाक्य न सुना हो उसके लिए तो ये अजूबा ही है.उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाने वालों की होड सी लगी है.....जाने कहाँ थे ये लोग जब वो जिंदा थी.हमारे समाज की यही तो खासियत है,ढकोसलों से ऊपर आज तक नहीं उठ पाया.अपने दुखों का सार्वजनिक प्रदर्शन करना आदमी को आत्मसंतोष देता है.या शायद कभी कभी किसी ग्लानि भाव से मुक्ति भी दिलाता है.
ललिता की रूह बेचैन हो गयी.....तन तजने के बाद भी भारीपन अब तक नहीं गया था....क्यूँ मुक्त नहीं हुई वो???? किसी किसी को शायद मौत के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती.जीते जी कुछ भी उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ...अपना पूरा जीवन उसने दूसरों के इशारों पर जिया.अब मौत के बाद तो उसे मुक्ति का अधिकार मिलना चाहिए था.
तभी मंच पर उसका पति मदन आया....ललिता का जी मिचलाने लगा....ज़िन्दा होती तो शायद दिल धड़कने भी लगता ज़ोरों से. मदन ने भी ललिता को सरस्वती का अवतार बता डाला.....उसके मुख से अपनी प्रसंशा सुन कर भी ललिता को घृणा हो आई...पति का दोगला व्यवहार उस सहृदया को नागवार गुज़रा,मगर जब जीवित होते हुए उसने कभी किसी बात का विरोध नहीं किया तो अब क्या करती.सिसक के रह गयी उसकी रूह....
ललिता जब ब्याह कर आई थी तो हर नवयौवना की तरह अपने आँचल में ढेरो ख्वाब टांक कर लायी थी......दहेज के साथ अरमानों की पोटलियां भी थी......और उसके पिता ने सौंप दिया उसको एक ऐसे पुरुष के हाथों जिसने उसका आँचल तार तार कर दिया....दहेज की पोटली तो सम्हाल ली गयी मगर अरमानों को कुचल कर फेक दिया गया.
ललिता एक मध्यमवर्गीय सुसंस्कृत परवार की बेटी थी.वो दो बहने थीं, जिन्हें शिक्षक माता-पिता ने बड़े स्नेह से पाला था.उनकी हर उपलब्धि पर माँ उन्हें एक पुस्तक उपहार में दिया करतीं जो उनके लिए किसी स्वर्णाभूषण से कम न थीं.दोनों बहने सुन्दर सुघड़ और संस्कारी थीं.
और ससुराल में माहौल एकदम उलट.....यहाँ अखबार में चटपटी खबर पढ़ने के सिवा किसी को उसने पढते नहीं देखा,और तो और उसके पठन-पाठन पर भी उन्हें ऐतराज़ होता,ताना मारते हुए कहते -माँ शारदा,पहले काम तो निपटा लो...आहत मन से वो जुट जाती अपने काम में.घर में ससुर और पति के सिवा कोई था नहीं सो ज्यादा काम भी नहीं रहता था.अशिक्षित होने भर से क्या आदमी को पशुवत व्यवहार करने का अधिकार मिल जाता है ? ऐसे प्रश्न ललिता के मन में अकसर उठते रहते.....मगर किससे मांगती उत्तर ??
आरम्भ में वो अपने अपमान को गटक नहीं पाती थी और मदन से जिरह करती...मगर मदन उसे "कुतर्क न कर" कह कर चुप करा देता........जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला हिसाब था यहाँ. सो धीरे धीरे उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया...और खुद में मगन रहने लगी.मदन एक ऐसा पति था जो उसको न कभी हंसाता,न रिझाता न प्रेम जताता.........बस इस्तेमाल करता....ललिता हांड-मांस की बनी गुडिया सी हो गयी थी.. .... वक्त बेवक्त गुस्सा करना और उसके काम में मीन मेख निकालना बाप बेटा के स्वभाव में शामिल था.....मगर जो भी तमाशा होता वो आमतौर पर घर की चारदीवारी के अंदर ही होता सो आस पड़ोस में उसकी इज्ज़त अभी बनी हुई थी.मध्यमवर्गीय लोग ही तो ख़याल करते हैं समाज का,पास-पड़ोस का....वरना निम्न और उच्चवर्गीय लोगों में कहाँ कोई लिहाज या पर्दा रहता हैं...... ललिता लोगों से मेलजोल कम ही रखती थी,फिर भी जाने कैसे वो शांत और संतुष्ट दिखाई पड़ती थी. शायद भगवान ने उसको तरस खाकर ये वरदान दिया हो....
स्नेह का अभाव और वक्त-बेवत के ताने उसको तोड़ रहे थे भीतर ही भीतर ,अकेले में वो अपने तार तार हुए मन को सीती रहती..और किसी तरह जीती रहती....कभी कभी सोचती, कौन जाने,इनके ऐसे व्यवहार की वजह सी ही शायद उसकी सास असमय दुनिया छोड़ गयीं हों ?? काश वो जीवित होतीं तो एक स्त्री के होने से उसको कुछ सहारा मिलता शायद....शायद उनका नारी मन उसकी पीड़ा को समझता.मगर जो चला गया उसको वापस तो लाया नहीं जा सकता....जीवन के पन्ने कभी पीछे पलटे जा सकते हैं भला??
ऐसे ही माहौल में ललिता गर्भवती हुई.उसको लगा शायद अब दिन फिर जायेंगे,पितृत्व बदलाव अवश्य लाएगा मदन में.मगर उसके हाथों की लकीरें इतनी अच्छी न थीं........लिंग जांच के बाद उसका गर्भ गिरवा दिया गया......और ऐसा ३ सालों में २ बार हुआ...उनका कहना था कि उन्हें एक और ललिता नहीं जाहिए...कितना बोझा ढोयेंगे हम आखिर,उसके ससुर ने बुदबुदाया था उस रोज. ललिता का आहत मन चीख पड़ा था...मगर नक्कारखाने में तूती की तरह उसकी आवाज़ भी दीवारों से टकरा कर गुम हो गयी......वो कहना चाहती थी मुझे भी नहीं चाहिए बेटा...नहीं चाहिए एक और मदन.मगर उसका चाहना न चाहना मायने कहाँ रखता था.....आखिर उसने एक बेटे को जन्म दिया.सूखी छाती निचोड़ कर ललिता बेटे को बड़ा करने लगी, इस आस में कि उसके अँधेरे जीवन में दिया बन टिमटिमायेगा उसका बेटा.वो अपना पूरा वक्त बेटे को देती,उसे अच्छी कहानियाँ सुनाती, दुनियादारी की सीख देती, मगर वो अकसर उसके हाथ ही न आता.भाग कर अपने दादा या बाप के पास चला जाता और वे उसको ही खदेड़ देते कि बच्चे को क्या प्रवचन देती रहती हो...सन्यासी बनाना है क्या?
बबूल के बीज से कभी आम का पेड़ उगा है क्या???? नीम से निम्बोली ही झरेगी,हरसिंगार नहीं....
स्नेह का अभाव और वक्त-बेवत के ताने उसको तोड़ रहे थे भीतर ही भीतर ,अकेले में वो अपने तार तार हुए मन को सीती रहती..और किसी तरह जीती रहती....कभी कभी सोचती, कौन जाने,इनके ऐसे व्यवहार की वजह सी ही शायद उसकी सास असमय दुनिया छोड़ गयीं हों ?? काश वो जीवित होतीं तो एक स्त्री के होने से उसको कुछ सहारा मिलता शायद....शायद उनका नारी मन उसकी पीड़ा को समझता.मगर जो चला गया उसको वापस तो लाया नहीं जा सकता....जीवन के पन्ने कभी पीछे पलटे जा सकते हैं भला??
ऐसे ही माहौल में ललिता गर्भवती हुई.उसको लगा शायद अब दिन फिर जायेंगे,पितृत्व बदलाव अवश्य लाएगा मदन में.मगर उसके हाथों की लकीरें इतनी अच्छी न थीं........लिंग जांच के बाद उसका गर्भ गिरवा दिया गया......और ऐसा ३ सालों में २ बार हुआ...उनका कहना था कि उन्हें एक और ललिता नहीं जाहिए...कितना बोझा ढोयेंगे हम आखिर,उसके ससुर ने बुदबुदाया था उस रोज. ललिता का आहत मन चीख पड़ा था...मगर नक्कारखाने में तूती की तरह उसकी आवाज़ भी दीवारों से टकरा कर गुम हो गयी......वो कहना चाहती थी मुझे भी नहीं चाहिए बेटा...नहीं चाहिए एक और मदन.मगर उसका चाहना न चाहना मायने कहाँ रखता था.....आखिर उसने एक बेटे को जन्म दिया.सूखी छाती निचोड़ कर ललिता बेटे को बड़ा करने लगी, इस आस में कि उसके अँधेरे जीवन में दिया बन टिमटिमायेगा उसका बेटा.वो अपना पूरा वक्त बेटे को देती,उसे अच्छी कहानियाँ सुनाती, दुनियादारी की सीख देती, मगर वो अकसर उसके हाथ ही न आता.भाग कर अपने दादा या बाप के पास चला जाता और वे उसको ही खदेड़ देते कि बच्चे को क्या प्रवचन देती रहती हो...सन्यासी बनाना है क्या?
बबूल के बीज से कभी आम का पेड़ उगा है क्या???? नीम से निम्बोली ही झरेगी,हरसिंगार नहीं....
पूत के पाँव पालने में दिखने लगते हैं सो इस कपूत के लक्षण भी १०-१२ साल से ही दिखने लगे.माँ को वो अपने पाँव की जूती समझता...पढ़ना लिखना छोड़ बारहवीं के बाद से ही बाप दादा के धंधे में लग गया.अब तीन तीन मर्दों के बीच ललिता स्वयं को बेहद असहाय महसूस करती.....अपना दोष खोजती रहती मगर सिवा उसके नसीब के उसमें कुछ खोट न था.बेटी का दुःख उसके माता-पिता की मृत्यु का कारण भी बना.अब इस दुनिया में एक बहन के सिवा उसका अपना कहने को कोई न था. वो अकसर उसको ढाढस बंधाती,और प्रेरित करती लिखते रहने को..सबसे पहले ललिता ने एक छोटी सी कविता लिखी,जो उसके अपने मन के उद्गार थे.
आज मैं
तुमसे
अपना हक मांग रही हूँ..
इतने वर्षों
समर्पित रही... बिना किसी अपेक्षा के..
बिना किसी आशा के..
कभी कुछ माँगा नहीं
और तुमने
बिना मांगे
दिया भी नहीं...
अब जाकर
ना जाने क्यूँ
मेरा स्त्री मन
विद्रोही हो चला है
बेटी/बहिन/बहु/पत्नी/माँ
इन सभी अधिकारों को
तुम्हे सौंप कर
एक स्त्री होने का हक
मांगती हूँ तुमसे...
कहो
क्या मंज़ूर है ये सौदा तुम्हे???
कविता उसकी बहन को इतनी पसंद आई कि उसने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजने की बात की.ललिता सरल स्वभाव की थी सो उसने अपने पति से इजाज़त मांगी.मगर मदन तो सरल नहीं था न...वो भड़क गया और चेतावनी दे डाली कि खबरदार जो रचना भेजी...बहुत उड़ रही हो...तुम्हारे पर क़तर दूंगा ..जाने क्या क्या अनर्गल बक डाला उसने.
मगर इस दफा ललिता की बहन ने उसने लिए एक उपनाम चुना "गौरी" और रचना भेज दी.ललिता को उस रचना के लिए ढेरों बधाई पत्र और मानदेय भी मिला,जो उसकी बहन के पते पर आया.अब तो ललिता के मानों सचमुच पंख निकल आये..वो अकसर अपना लिखा भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में भेजती और प्रशंसा,मानदेय के साथ अभूतपूर्व संतुष्टि पाती...बरसों से सोयी उसके भीतर की कला और आत्मविश्वास अब जाग गया था.
एक बहुत बड़े प्रकाशक ने उसको उपन्यास लिखने का सुझाव दिया. रचनात्मकता की कोई कमी तो थी नहीं और उत्साह भी उबाल पर था.कुछ ही दिनो में उसने उपन्यास पूरा कर डाला और पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में भी आ गयी.ललिता ने एक बार फिर प्रयास किया कि मदन को बता कर विमोचन में जा सके मगर उसने साफ़ मना कर दिया.खूब लताड़ा भी ...साथ ही धमका भी दिया कि यहाँ अगर एक प्रति भी दिखी तो जला डालूँगा.ललिता कभी समझ नहीं पायी कि आखिर उसका गुनाह क्या था और उसकी इस प्रतिभा से मदन को क्या कष्ट था.शायद उसके अंदर की हीनभावना उससे ये सब करवा रही थी.ललिता सदा मौन का कवच पहने रहती.और उसका मौन मुखर होता सिर्फ उसकी डायरी के पन्नों पर....
ललिता का उपन्यास बहुत ज्यादा पसंद किया गया.प्रकाशक तो मानो बावला सा हो गया था.दूसरे उपन्यास के लिए उतावला हुआ जा रहा था...ललिता भी बहुत खुश थी मगर परिवार का असहयोग उसको खाए जा रहा था.मन बीमार हो तो तन भी कब तक साथ देता...ललिता अकसर बीमार रहने लगी.और जब भी वो अस्वस्थ महसूस करती या असमय लेट जाती तो पति या ससुर ताना मार देते कि सारी ऊर्जा पन्ने काले करने में क्यूँ गवां देती हो! पति चीखता,एक घर का काम ही तो करने के लायक थीं वो नहीं कर सकती तो तुम्हें पालें क्यूँ???? ललिता को एहसास हो चला था कि इनके लिए मेरा कोई मोल नहीं.
सो एक दिन उसने सम्बंधित संस्थानों से संपर्क करके अपने नेत्र दान किये और अपनी देह भी मेडिकल कॉलेज को दान कर दी.उसको बड़ा संतोष मिला, संभवतः ऐसा करने से उसके आहत स्वाभिमान को थोड़ा सुकून मिला होगा . शायद मौत भी उसके इसी कदम का इन्तेज़ार कर रही थी.एक सुबह उसने इस नर्क से विदाई ले ली.......मुक्त हो ली वो पल-पल की घुटन से.
सुबह आठ बजे तक ललिता उठी नहीं तो पति ,ससुर, बेटा सभी चीखने लगे,मगर अब ललिता किसी की चीख पुकार सुनने वाली न थी....वो बहुत दूर चली गयी थी इन निर्मोहियों से....
अखबारों के माध्यम से ललिता का बहुत नाम हो गया था,सो खबर शहर भर में आग की तरह फ़ैल गयी.लोगों का तांता लग गया मदन के घर.अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगी.
तभी ललिता के तकिये के नीचे से एक कागज का पुर्जा निकला .मदन ने पढ़ा तो उसे पता लगा कि उसकी स्वाभिमानी पत्नि ने अपने नेत्र के साथ देह भी दान कर दी है.मुखाग्नि का अधिकार भी छीन लिया था उसने.मदन ने दो पल को सोचा फिर कागज फाड़ के फेंक दिया और शवयात्रा निकालने की तैयारी में जुट गया.मौत के बाद भी वो ललिता को मनमर्जी करने कैसे दे सकता था.
पूरे साजो श्रृंगार के साथ ललिता की शवयात्रा निकली,और उसकी सुन्दर सी मासूम काया पंचतत्व में विलीन हो गयी.....जाने कितने ग़मगीन चेहरे उसकी चिता को घेरे थे.मौत के बाद ही सही उसको कुछ सम्मान तो मिला.
आज उसकी तेरहवीं है...और उसकी रूह देख रही है अपने परिजनों को,अपने लिए दुखी होते.ललिता की रूह परेशान सी यहाँ वहाँ भटकती रही......पूरे कर्मकांड किये गए उसकी आत्मा की शान्ति के लिए.मदन और उसका बेटा हरिद्वार हो आये ,उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करने.पूजापाठ,प्रार्थना सभा क्या नहीं हुआ. मगर ललिता की रूह को मुक्ति नहीं मिली....भटकती फिर रही थी वो....न जीते जी चैन था न मर कर चैन पाया उस बेचारी ने.
उसकी मौत को आज पूरा एक माह हो गया था.उसने देखा मदन सुबह सुबह उठ कर नहा धोकर कहीं निकल गया. ललिता की रूह उसका पीछा करने लगी...
मदन चलता चलता शहर के बाहर एक पुराने मंदिर की ड्योढ़ी पर बैठ गया.उसके हाथ में ललिता का लिखा हुआ उपन्यास था "महामुक्ति". वो अपलक उसे देखता रहा फिर पढ़ने लगा वह आखरी पन्ना जहाँ ललिता ने चंद पंक्तियों में अपने उपन्यास का सार लिखा था..मदन के बुदबुदाते स्वर को सुन सकती थी ललिता की रूह.....फिर रूह तो मन की आवाज़ भी सुन लेती हैं.
आज मैं
तुमसे
अपना हक मांग रही हूँ..
इतने वर्षों
समर्पित रही... बिना किसी अपेक्षा के..
बिना किसी आशा के..
कभी कुछ माँगा नहीं
और तुमने
बिना मांगे
दिया भी नहीं...
अब जाकर
ना जाने क्यूँ
मेरा स्त्री मन
विद्रोही हो चला है
बेटी/बहिन/बहु/पत्नी/माँ
इन सभी अधिकारों को
तुम्हे सौंप कर
एक स्त्री होने का हक
मांगती हूँ तुमसे...
कहो
क्या मंज़ूर है ये सौदा तुम्हे???
कविता उसकी बहन को इतनी पसंद आई कि उसने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजने की बात की.ललिता सरल स्वभाव की थी सो उसने अपने पति से इजाज़त मांगी.मगर मदन तो सरल नहीं था न...वो भड़क गया और चेतावनी दे डाली कि खबरदार जो रचना भेजी...बहुत उड़ रही हो...तुम्हारे पर क़तर दूंगा ..जाने क्या क्या अनर्गल बक डाला उसने.
मगर इस दफा ललिता की बहन ने उसने लिए एक उपनाम चुना "गौरी" और रचना भेज दी.ललिता को उस रचना के लिए ढेरों बधाई पत्र और मानदेय भी मिला,जो उसकी बहन के पते पर आया.अब तो ललिता के मानों सचमुच पंख निकल आये..वो अकसर अपना लिखा भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में भेजती और प्रशंसा,मानदेय के साथ अभूतपूर्व संतुष्टि पाती...बरसों से सोयी उसके भीतर की कला और आत्मविश्वास अब जाग गया था.
एक बहुत बड़े प्रकाशक ने उसको उपन्यास लिखने का सुझाव दिया. रचनात्मकता की कोई कमी तो थी नहीं और उत्साह भी उबाल पर था.कुछ ही दिनो में उसने उपन्यास पूरा कर डाला और पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में भी आ गयी.ललिता ने एक बार फिर प्रयास किया कि मदन को बता कर विमोचन में जा सके मगर उसने साफ़ मना कर दिया.खूब लताड़ा भी ...साथ ही धमका भी दिया कि यहाँ अगर एक प्रति भी दिखी तो जला डालूँगा.ललिता कभी समझ नहीं पायी कि आखिर उसका गुनाह क्या था और उसकी इस प्रतिभा से मदन को क्या कष्ट था.शायद उसके अंदर की हीनभावना उससे ये सब करवा रही थी.ललिता सदा मौन का कवच पहने रहती.और उसका मौन मुखर होता सिर्फ उसकी डायरी के पन्नों पर....
ललिता का उपन्यास बहुत ज्यादा पसंद किया गया.प्रकाशक तो मानो बावला सा हो गया था.दूसरे उपन्यास के लिए उतावला हुआ जा रहा था...ललिता भी बहुत खुश थी मगर परिवार का असहयोग उसको खाए जा रहा था.मन बीमार हो तो तन भी कब तक साथ देता...ललिता अकसर बीमार रहने लगी.और जब भी वो अस्वस्थ महसूस करती या असमय लेट जाती तो पति या ससुर ताना मार देते कि सारी ऊर्जा पन्ने काले करने में क्यूँ गवां देती हो! पति चीखता,एक घर का काम ही तो करने के लायक थीं वो नहीं कर सकती तो तुम्हें पालें क्यूँ???? ललिता को एहसास हो चला था कि इनके लिए मेरा कोई मोल नहीं.
सो एक दिन उसने सम्बंधित संस्थानों से संपर्क करके अपने नेत्र दान किये और अपनी देह भी मेडिकल कॉलेज को दान कर दी.उसको बड़ा संतोष मिला, संभवतः ऐसा करने से उसके आहत स्वाभिमान को थोड़ा सुकून मिला होगा . शायद मौत भी उसके इसी कदम का इन्तेज़ार कर रही थी.एक सुबह उसने इस नर्क से विदाई ले ली.......मुक्त हो ली वो पल-पल की घुटन से.
सुबह आठ बजे तक ललिता उठी नहीं तो पति ,ससुर, बेटा सभी चीखने लगे,मगर अब ललिता किसी की चीख पुकार सुनने वाली न थी....वो बहुत दूर चली गयी थी इन निर्मोहियों से....
अखबारों के माध्यम से ललिता का बहुत नाम हो गया था,सो खबर शहर भर में आग की तरह फ़ैल गयी.लोगों का तांता लग गया मदन के घर.अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगी.
तभी ललिता के तकिये के नीचे से एक कागज का पुर्जा निकला .मदन ने पढ़ा तो उसे पता लगा कि उसकी स्वाभिमानी पत्नि ने अपने नेत्र के साथ देह भी दान कर दी है.मुखाग्नि का अधिकार भी छीन लिया था उसने.मदन ने दो पल को सोचा फिर कागज फाड़ के फेंक दिया और शवयात्रा निकालने की तैयारी में जुट गया.मौत के बाद भी वो ललिता को मनमर्जी करने कैसे दे सकता था.
पूरे साजो श्रृंगार के साथ ललिता की शवयात्रा निकली,और उसकी सुन्दर सी मासूम काया पंचतत्व में विलीन हो गयी.....जाने कितने ग़मगीन चेहरे उसकी चिता को घेरे थे.मौत के बाद ही सही उसको कुछ सम्मान तो मिला.
आज उसकी तेरहवीं है...और उसकी रूह देख रही है अपने परिजनों को,अपने लिए दुखी होते.ललिता की रूह परेशान सी यहाँ वहाँ भटकती रही......पूरे कर्मकांड किये गए उसकी आत्मा की शान्ति के लिए.मदन और उसका बेटा हरिद्वार हो आये ,उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करने.पूजापाठ,प्रार्थना सभा क्या नहीं हुआ. मगर ललिता की रूह को मुक्ति नहीं मिली....भटकती फिर रही थी वो....न जीते जी चैन था न मर कर चैन पाया उस बेचारी ने.
उसकी मौत को आज पूरा एक माह हो गया था.उसने देखा मदन सुबह सुबह उठ कर नहा धोकर कहीं निकल गया. ललिता की रूह उसका पीछा करने लगी...
मदन चलता चलता शहर के बाहर एक पुराने मंदिर की ड्योढ़ी पर बैठ गया.उसके हाथ में ललिता का लिखा हुआ उपन्यास था "महामुक्ति". वो अपलक उसे देखता रहा फिर पढ़ने लगा वह आखरी पन्ना जहाँ ललिता ने चंद पंक्तियों में अपने उपन्यास का सार लिखा था..मदन के बुदबुदाते स्वर को सुन सकती थी ललिता की रूह.....फिर रूह तो मन की आवाज़ भी सुन लेती हैं.
हे प्रभु!
मुक्ति दो मुझे
जीवन की आपधापी से
बावला कर दो मुझे
बिसरा दूँ सबको...
सूझे ना कुछ मुझे..
सिवा तेरे..
मुक्ति दो मुझे
जीवन की आपधापी से
बावला कर दो मुझे
बिसरा दूँ सबको...
सूझे ना कुछ मुझे..
सिवा तेरे..
डाल दो बेडियाँ
मेरे पांव में..
कुछ अवरोध लगे
इस द्रुतगामी जीवन पर..
और दे दो मुझे तुम पंख...
कि मैं उड़ कर
पहुँच सकूँ तुम तक...
शांत करो ये अनबुझ क्षुधा
ये लालसा,मोह माया..
हे प्रभु!
मन चैतन्य कर दो..
मुझे अपने होने का
बोध करा दो..
मुझे मुक्त करा दो....
मेरे पांव में..
कुछ अवरोध लगे
इस द्रुतगामी जीवन पर..
और दे दो मुझे तुम पंख...
कि मैं उड़ कर
पहुँच सकूँ तुम तक...
शांत करो ये अनबुझ क्षुधा
ये लालसा,मोह माया..
हे प्रभु!
मन चैतन्य कर दो..
मुझे अपने होने का
बोध करा दो..
मुझे मुक्त करा दो....
मदन की आँखों से आंसू झरने लगे...पुस्तक के भीतर मुँह छुपाकर वो रोने लगा....
हैरान थी ललिता की रूह......मदन की आँख में आंसू !! वो भी ललिता के लिए ? मदन बहुत देर तक सिसकियाँ लेता रहा और फिर किताब को सीने से लगाये चला गया.....
ललिता की रूह को एक अजीब सा हल्कापन महसूस हुआ...उसको लगा उसे कोई खींच रहा है ऊपर......
गुरुत्वाकर्षण से परे वो चली जा रही थी ऊपर...बहुत ऊपर......पा गयी थी वो "महामुक्ति" ..आज देह के साथ उसकी आत्मा भी मुक्त हो गयी थी.
ढेरों कर्म-कांड,हवन कुंड की आहुतियाँ और गंगा जी का पानी उसकी आत्मा को मुक्त न कर सके थे, मगर मदन की आँख से गिरी दो बूंदों ने ललिता की आत्मा को शांत कर दिया...उसकी भटकन को राह दे दी.उसका जीवन भले व्यर्थ चला गया हो किन्तु उसकी मौत सार्थक हुई.
-अनुलता हैरान थी ललिता की रूह......मदन की आँख में आंसू !! वो भी ललिता के लिए ? मदन बहुत देर तक सिसकियाँ लेता रहा और फिर किताब को सीने से लगाये चला गया.....
ललिता की रूह को एक अजीब सा हल्कापन महसूस हुआ...उसको लगा उसे कोई खींच रहा है ऊपर......
गुरुत्वाकर्षण से परे वो चली जा रही थी ऊपर...बहुत ऊपर......पा गयी थी वो "महामुक्ति" ..आज देह के साथ उसकी आत्मा भी मुक्त हो गयी थी.
ढेरों कर्म-कांड,हवन कुंड की आहुतियाँ और गंगा जी का पानी उसकी आत्मा को मुक्त न कर सके थे, मगर मदन की आँख से गिरी दो बूंदों ने ललिता की आत्मा को शांत कर दिया...उसकी भटकन को राह दे दी.उसका जीवन भले व्यर्थ चला गया हो किन्तु उसकी मौत सार्थक हुई.
लाखों ललिताएं महामुक्ति की याचना में दर-ब-दर भटक रही है...
ReplyDeleteआपने उनकी रूहों को संबल दिया...स्वर दिया
यकीनन... एक बेहतरीन रचना अनुजी.....
मुझे लगता है शायद मैं सफल हुई अपनी बात कहने में..
Deleteशुक्रिया राहुल
पहली ही कहानी इतनी बढ़िया लिखी है आपने, अनु, कि अंदाज़ लगाना बड़ा आसान है आगे आने वाली कहानियों कि गुणवत्ता के बारे में.
ReplyDeleteसादर बधाई! और प्रतियोगिता के लिए शुभकामनायें!!
अमित जी बहुत बहुत शुक्रिया...मुझे पता है आप मेरी हर कोशिश को कामयाब और सुन्दर बताएँगे...चाहे वो कैसी भी हो :-)
Deleteरूह को चैन मिला .... बहुत ही गहराई है इस कहानी में
ReplyDeleteमदन से जिरह करती...
ReplyDeleteमोहन एक ऐसा पति था ....
ढेरों कर्म-कांड,हवन कुंड की आहुतियाँ और गंगा जी का पानी उसकी आत्मा को मुक्त न कर सके थे, मगर मदन की आँख से गिरी दो बूंदों ने ललिता की आत्मा को शांत कर दिया...उसकी भटकन को राह दे दी.उसका जीवन भले व्यर्थ चला गया हो किन्तु उसकी मौत सार्थक हुई.-अनुलता
हाय रे पत्नी .... !
आपकी पहली कहानी बहुत ही सशक्त और गहन भाव लिए ... बधाई के साथ अनंत शुभकामनाएं उत्कृष्ट लेखन के लिए ... आभार
ReplyDeleteरश्मि दी,विभा जी,सदा...आपका शुक्रिया.
Deleteपहला प्रयास प्रशंसनीय है , बस एक सवाल बार बार उठ रहा था के आखिर क्यूँ मदन ने ललिता के उपन्यास को पढने का सोचा , जब उसके हर अरमान को वो कुचलता आया था , शायद लोगों का उस लेखिका के लिए प्यार और सम्मान मदन को ये एहसास करा गया कि उसे भी उस उपन्यास को एक बार तो पढ़कर देखना चाहिए , और उस उपन्यास के शब्दों और भावनाओं नें उसे पिघला दिया और रोने पर मजबूर कर दिया । उसे इस बात का एहसास करवा गया के उसने क्या खो दिया ।
ReplyDeleteआपकी सोच सही है रीना जी....दूसरों का ललिता के प्रति मान और स्नेह देख शायद उसे एहसास हुआ हो..और फिर कभी कभी किसी के न रहने से उसका मूल्य समझ आता है...
Deleteआपका शुक्रिया पढ़ने और विवेचना करने के लिए.
सस्नेह
बहुत सुंदर अर्थपूर्ण कहानी लिखी है अनु,
ReplyDeleteबधाई आपको ! बस एक बात,..... हर कला की परख एक कलाकार ही कर सकता है
लेकिन मनुष्य अपनेही नजदीकी लोगो में अपने आप को क्यों परखना चाहता है ?
अपेक्षा अक्सर दुःख देती है, निस्वार्थ सृजन हो तो मरने के बाद रूह के द्वारा अनुभव क्यों
अभी इसीवक्त हो सकता है ! हीरे की कद्र जौहरी ही कर सकता है .....हिरा अगर धोबी
को मिले तो गधे के गले की शोभा बनता है (यह भी एक कहानी है ) सो कहानी का नायक पत्नी के जाने के बाद उपन्यास
पढ़कर रोता है तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ ! .......बढ़िया कहानी !
सुमन जी आपकी टिप्पणी पढ़ कर मुझे लगा कि मेरा लिखना सार्थक हुआ...आपने मेरी रचना और नायिका के हर भाव को पढ़ा और समझा है..आप जैसा पाठक पाकर अभिभूत हूँ.
Deleteआभारी हूँ.
बहुत अच्छी लगी यह कहानी । लग ही नहीं रहा कि आपने पहली बार कहानी लिखी है।
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर अर्थपूर्ण सार्थक कहानी..पहला प्रयास कुछ खास ...बधाई..
ReplyDeleteनारी व्यथा को चित्रित करती बहुत मर्मस्पर्शी और सशक्त प्रस्तुति...बधाई..
ReplyDeleteसम्पूर्ण अभिव्यक्ति बहुत सुंदर है ...!!आपकी लेखनी दिनों दिन निखरती ही जा रही है ...!!निरंतर अग्रसर होति हुई ...
ReplyDeleteशुभकामनायें अनु ...!!
आभार आपका -यशवंत,महेश्वरी जी,कैलाश जी,अनुपमा जी...
Deleteस्नेह बना रहे बस...
इस कहानी की पात्र 'ललिता' वास्तव में मध्यमवर्गीय परिवार की उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है
ReplyDeleteजो अपने ससुराल से प्यार और सहयोग चाहती है, पर उसकी यह चाह जिंदगी के अंत तक पूर्ण नहीं हो पाती है .
सही में उनके लिए 'महामुक्ति' है, ये प्यार और स्नेह भरे आँसू ...
मुझे तो कहानी काफी अच्छी लगी ...
सार्थक... पाठक से सीधा संवाद करती हुई ..
शुभकामनाएँ !!
कहानी सी कम , सच्चाई सी अधिक , लेखन उत्कृष्ट और प्रवाहमयी | कहानी के क्षेत्र में पहला कदम अत्यंत 'दमदार' | बधाई एवं शुभकामनाएं |
ReplyDeleteशिवनाथ जी और अमित जी आपका शुक्रिया....आपको पसंद आई कहानी सो खुश हूँ....प्रतियोगिता एक बहाना बनी ,खुद को परखने का हौसला मिला...
Deleteआपके शब्द संबल बढाते हैं.
आभार.
सच के बहुत करीब है ये कहानी,
ReplyDeleteकहानी से ज्यादा आज की हकीकत है
बढिया
एक लम्बे अरसे के बाद "महा -मुक्ति " जैसी सशक्त रचना पढ़ी .हाँ कुछ ऐसे भाव कृपण लोग ,शब्द कृपण लोग मदन और उसके कथित बाप सरीखे हमारे गिर्द हैं जिन्हें किताबों से कोई मतलब नहीं होता ,संगीत से जो छिटक तें हैं कोई अच्छा गा रहा हो तो वह पास वाले के कान में मन्त्र फूंकने लगतें हैं .
ReplyDeleteमुखाग्नि का अधिकार मदन से सही छीना गया था ,लेकिन आखिर में प्रकाशित उपन्यास उसके हाथ में आजाता है ललिता कृत कई शीर्ष है इस कहानी के जिनमे से यह आखिरी अंश भी है .हाड मांस के पात्र हैं मदन और उसका "पिता ",और सब कुछ पृथ्वी की तरह झेलती धीर गंभीर ललिता .पुरुस्कृत होने की प्रबल संभावना लिए है यह रचना बाकी निर्णय आने तक इंतज़ार हम भी करेंगे .
वीरू भाई आपकी टिप्पणी ही मेरे लिए बहुत बड़ा पुरूस्कार है.कोई खुल के आलोचना नहीं करेगा इसका तो मुझे आभास था परन्तु ऐसी प्रशंसा की उम्मीद भी न थी.
Deleteआप सभी के स्नेह और आशीर्वाद से निरंतर सुधार के लिए वचनबद्ध हूँ.
आभार,ह्रदय से.
सचमुच ऐसा लगा ही नहीं की ये आपकी पहली कहानी. बहुत ही सशक्त और गहन भाव हैं ... बधाई और हार्दिक शुभकामनायें...
ReplyDeleteअच्छी लगी कहानी...सुंदर प्रवाहमयी लेखन
ReplyDeleteप्रवाह सुन्दर और कथ्य मन को छूता हुआ ....
ReplyDeleteकई ललिताओं की यही कहानी है ......पता नहीं कुछ नारियां खुद के अस्तित्व को उनसे ही क्यों जाँचती हैं जो वास्तव में हमेशा से उनके अस्तित्व को नकारते आये हैं .....इस कहानी में भी वही हुआ .... आपका ये प्रथम प्रयास सफल हुआ है !
ReplyDeleteकहानी पढ़ते वक्त ललिता की लालसा , उसकी जिजीविषा, उसकी दीनता,. उदासी नहीं देकर मन में क्रोध का अंश दे गई उसके पति और परिवार के प्रति . कहानी का प्रवाह पाठक को अपने साथ बहा कर ले जाता है और भाषा और शैली की कसावट , कथानक के अनुरूप बन पड़ी है . कहानी में प्रयुक्त कविता पंक्तिया इसके प्रवाह और प्रभाव को द्विगुणित कर गई . अगर ये प्रथम प्रयास है तो , आगे का मंजर बस देखते ही बनेगा .
ReplyDeleteआशीष जी शुक्रिया......बड़ा मायने रखती है आप जैसे गुणीजनों की प्रशंसा...उम्मीद है ये एक दिलासा मात्र नहीं है मुझे प्रोत्साहित करने के लिए :-)
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सोनरूपा,वंदना जी,मोनिका जी,संध्या जी,महेंद्र जी.
bahut hi sundar kahaani likhi hai aapne, lagta to nahi ki aapki pahli kahani hai,kahaani me kavita ko sthaan dekar use aur bhi rochak aur vaastvik sa banaa diya hai aapne. ek baar kahani shuru ho to bina khatm hue aap uth nahi sakte baandhe rakhti hai, chhoti aur bhaavpurn kahani. badhai.
ReplyDeleteवाह.....
ReplyDeleteकष्टमय जीवन और मृत्युपरांत भी भटकन से लेकर महामुक्ति तक कहानी बांधे रखती है... जैसे कोई आसपास घटता सच ही हो!
ReplyDeleteकहानी में आई कवितायेँ भी कथ्य को बखूबी आगे बढ़ाती हैं!
Looking forward to read more stories by you in future!
अनु जी ,नि;शब्द रह गईं हूँ ......
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट कहानी अनु दी...
ReplyDeleteलग ही नहीं रहा की आपने पहली बार कहानी लिखी है..
ऐसा लगा जैसे किसी प्रसिद्ध कहानीकारा की रचना हो...
आगे भी लिखते रहिये मै तो जरुर पढूंगी...
:-) :-) :-)
जीते जी ललिता सरसो भर भी स्नेह पा गई होती तो महामुक्ति की नौबत ही नहीं आती...
ReplyDeleteसशक्त कहानी,रोचक भाषा शैली...प्रस्तुति प्रवाहमयी...बहुत अच्छी लगी|
कहानी प्रतियोगिता में है...हार्दिक शुभकामनाएँ !!
सस्नेह
बहुत भावपूर्ण कहानी है देह के साथ आत्मा की भी विमुक्ति -अंगार आखिर कब ?
ReplyDeleteएक टीस सी उभारती यथार्थ कथा -क्रिएटिव और मौलिक !
आप एक सफल कथाकार हैं। लिखते रहिए।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteकल और आज में मैंने इस कहानी को दो तीन बार पढ़ा है.कहीं पर भी ये लगता नही है की आपने पहली बार लिखी है.मै पिछले कई सालों से स्टोरी राइटर हूँ.लेकिन मुझे आपकी कहानी में काफी तजुर्बात महसूस हुए.इसी तरह दिल से लिखती रहें.ये दिल का कनेक्शन ही है जो हमे यहाँ तक खिंच कर लाता है.साथ ही रक्षा बंधन की खूब खूब शुभकामना.रक्षा बंधन का तोहफा मोहब्बत नामा पर कल ही भेज चुका हूँ.उसे भी मेरी ओर से कबूल कीजिये.
ReplyDeleteमोहब्बत नामा
मास्टर्स टेक टिप्स
kahani nahi ye to bahut sari patniyon ki ramkahani hai...
ReplyDeleteअनु आपकी कहानी मार्मिक है । भावों में गहरे उतर कर लिखी गई है । वह भी पहले प्रयास में ही । इससे यह तो तय है कि आपकी अभिव्यक्ति सशक्त है ।
ReplyDeleteMany women can relate to the bits and pieces of this story. I liked how you used poetry in between. Congratulations Anu:)
ReplyDeleteअनु,
ReplyDeleteबड़ी मर्मस्पर्शी कहानी है...
ललिता के मनोभाव बहुत ही गहराई से अभिव्यक्त हुए हैं...
आसपास कितनी ही बेमेल विवाह का शिकार हुई ललिताएं नज़र आ गयीं इस कहानी में.
अंत बढ़िया था...आखिरकार ललिता के पति अहसास तो हुआ कि जीते जी ललिता की कदर नहीं की..और अब प्यार-सम्मान देना भी चाहे तो ललिता उसके पास नहीं हैं..अब वो पछतावे की आग में जलाता रहेगा...ललिता की रूह तो मुक्त हो गयी...उसके पति के रूह को मुक्ति नहीं मिलेगी.
{पहला ही प्रयास प्रशंसनीय है...नेट से अनुपस्थिति की वजह से तुम्हारी कहानी देर से पढ़ पायी...सॉरी...पर शुक्रिया भी तुमने याद दिलाया :) }
आखिर ललिता की रूह को मुक्ति मिल ही गयी ....
ReplyDeleteरहने लगी.मोहन एक ऐसा पति था जो उसको ... यहाँ शायद मोहन की जगह मदन की ही बात हो रही है ...
मर्मस्पर्शी कहानी
कौन कहता है आँखें कमज़ोर है :-)
Deleteदी आपके सिवा देखिये किसी ने नहीं पकड़ा...
सुधार कर लिया..हां प्रतियोगिता में तो वैसे ही चली गयी...
आपका बहुत आभार
सादर.
अनु जी, बहुत सुंदर कहानी.सच कहू तो मझधार पहुँचते मैं थोडा सा निराश होने लगा था.पर कहानी के समापन में अनेपक्षित मोड आ गया और सर्वांग एक सुंदर रचना बन पड़ी.बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteमैं नि:शब्द हूँ...बेचैन हूँ, सोचता हूँ इस को क्या कहूँ...आपकी कहानी मैं अपने फेसबुक "Women in Struggle" पेज पर डालना चाहता हूँ...ललिता को मैं सबसे रूबरू करवाना चाहता हूँ...यदि आपकी इजाज़त हो .
ReplyDeleteधन्यवाद,
गौरव
very powerful story. our society is full of lalitas, ur xpressions powerful words will give them strength.desperately wating to see ur next sensetive story .love u di
ReplyDeleteAurat ka man , agar padh pata purush , toh samajhta....kya hota hai voh aurat ke liye !Aysa samarpan kahi aur se pa nahi sakta , jab yeh samaj aata hai toh sirf pashatap reh jata hai , aasu ban kar behta hua ....
ReplyDeleteVery sensitive story , bahut jani pahchani hai dil ki yeh silwaten,aysi kosison se kuch ko mita paogi , viswas hai !
Sorry ! देर में इधर आ पाई!
ReplyDeleteभीगी भीगी सी रचना ! प्रथम प्रयास ही इतना बढ़िया है...-आप आगे भी ज़रूर लिखिए अनु जी !
anu ji mujhe aapki ye kahani kisi ne bheji ki mai padhu kai din pehle.. magar mai waqt nahi nikaal paai aaj maine din mei hi is kahani ko padha ....behad samvedansheel kahaani... ant tak aate aate kab aansu ludhak kar gaalo par aa gaye pata hi nahi chala... bahut marmikta se chitran kiya aapne ..haalaki thodi nirasha hui ki marne ke baad hi insaan ki kadar hai specially aurat ki to jinda rehne se maut behtar hai... parantu aapki rachna bahut prabhaavkaari hai.. itni sundar rachna ke liye dhero badhai ..aapse mile aur aapke blog se mil ke bahut achha laga :-)
ReplyDeleteअच्छा ब्लॉग है, रचनाएँ मन को छू जाने वाली हैं.
ReplyDeleteतभी मंच पर उसका पति मदन आया....ललिता का जी मिचलाने लगा....जिंदा होती तो शायद धड़कने भी लगता ज़ोरों से. मदन ने भी ललिता को सरस्वती का अवतार बता डाला.....उसके मुख से अपनी प्रसंशा सुन कर भी ललिता को घृणा हो आई...पति का दोगला व्यवहार उस सहृदया को नागवार गुज़रा,मगर जब जीवित होते हुए उसने कभी किसी बात का विरोध नहीं किया तो अब क्या करती.सिसक के रह गयी उसकी रूह.
ReplyDelete------यह किसी की हकीकत तो नहीं है ना---
सम्पूर्ण कहानी पढते पढते आखोँ मे आये आसूं कहानी का सुखांत पढकर कपोलौ पर ही सुख गए पोछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी --बहुत ही अच्छा है पहला प्रयास |
अनु जी बधाई ..प्रतिक्रिया बहुत देर से दे रही हूँ ...बहुत दिनों से ब्लॉग पर नहीं आ सकी कहानी बहुत उम्दा है वल्कि ये कहना चाहिए की हकीकत है हम अक्सर ही ऐसे किरदारों से मिलते हैं पर आपने परकाया प्रवेश किया है ललिता की आत्मा में घुस कर मन की पूरी व्यथा पन्नों पर उतर दी है एक बार फिर से बधाई
ReplyDeleteआप जो भी करते हो, दिल से करते हो, बस यही खासियत है आपकी :)
ReplyDeleteशानदार कहानी !!
दिल को छू लेनेवाली कहानी है..
ReplyDeleteपहले भी पढ़ी थी आज फिर पढ़ी..बहुत अच्छा :-)
"पहली कहानी" ????????????
ReplyDeleteमुझे तो कविता सी ही लगी ... पढ़ता चला गया ... :)
बेहतरीन रचना अनुजी..... शायद आज भी अनेकों ललिताएँ अपनी महामुक्ति कि राह देख रही हैं … मर्मस्पर्शी भाव
ReplyDeleteआज फिर पढ़ी ...मर्मस्पर्शी कहानी ....
ReplyDeletegreat presentation Anu... loved the way you have used poetry to describe pathos ..
ReplyDeleteमैंने प्रिंट आउट निकाल लिया है .... अब आराम से लेट कर पढूंगा .... स्टार्टिंग पढ़ा इंटरेस्टिंग लगी …
ReplyDeleteमैंने प्रिंट आउट निकाल लिया है .... अब आराम से लेट कर पढूंगा .... स्टार्टिंग पढ़ा इंटरेस्टिंग लगी …
ReplyDeletebahut hi sundar kahani dil ko chhhooti hui si...apni baki kahanio ke link b dijiye anu...
ReplyDeleteरचनाएँ मन को छू जाने वाली हैं. बेहतरीन रचना अनुजी
ReplyDeleteFollow-up comments will be sent to merikavitashikhar
बहुत खूबसूरत कहानी...आपकी ललिता को तो कलम कागज़ के रूप में अपना दर्द बांटने का एक साधन मिल भी गया, परआज भी जाने कितनी ललिताएं हैं जो अपने अपने मदनो के हाथों प्रताड़ित हो घुट घुट के मर जाती हैं और उनका मदन कभी भूले से भी उनके लिए एक बूँद आंसू नहीं गिराता...।
ReplyDeleteएक भावप्रवण कहानी के लिए हार्दिक बधाई...।
bahut sundar kahani .....
ReplyDeleteकहानी पढने के बाद मैंने कुछ टिप्प्णीयो को भी पढा और यही महसूस किया कि कोई अच्छी कहानी पढने के बाद हम उसके पात्रो से कितना जुड जाते है....एक ललिता की कहानी ने कितने दिलो की कहानी को जुबा दे दी...बधाई हो अनुलता जी,,,,
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