इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Tuesday, October 2, 2012

बंधक



पिंजरे के पंछी
तू कितना बेबस लगता है..
जाने  कैसे तू ,
यूँ घुट घुट के जीता है ??
कहाँ वो नीला आकाश
वो अनंत विस्तार...
कहाँ ये नन्हा सा पिंजरा,
बेशक  सोने का बना है..
जहाँ  तू अपने पंख तक नहीं पसार सकता..
बाध्य  है एकाकी जीवन जीने को.
तेरी मीठी बोली
जिस पर सब रीझे जाते हैं...
मुझे क्रंदन सी लगती है,
मानों  तू आंदोलन कर रहा हो...
स्वतंत्रता के लिए..

तेरे पर कटे नहीं है..
इसलिए तू और भी दुखी लगता है..
क्यूंकि तू आश्रित नहीं है...
बंधक है .
तू पंख विहीन होता
तो शायद  कुछ सुकून पाता...
नियति को स्वीकार करता
और कुछ कम छटपटाता............
-अनु 

41 comments:

  1. ६५ सालों से आस-पास बिखरे इतने सारे परिंदों को हम देख रहे हैं..पिंजड़े की अलग-अलग सलाखों से सिर मारते हुए.. और अब तो कई परिंदों ने इसे ही अपना घर मान लिया है..
    आपकी यह कविता समाज के विभिन्न पहलुओं को एक साथ छूती है. एक छिपा हुआ विस्तार है इसमें...

    ReplyDelete
  2. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं...पर पास में है पर उड़ने की मनाहीः(
    सस्नेह

    ReplyDelete
  3. तू पंख विहीन होता
    तो शायद कुछ सुकून पाता...
    नियति को स्वीकार करता
    और कुछ कम छटपटाता.........


    बहुत ही सच्ची बात!

    सादर

    ReplyDelete
  4. जाने कैसे तू ,
    यूँ घुट-घुट के जीता है ??
    कहाँ वो नीला आकाश
    वो अनंत विस्तार...
    -----------------
    वाह.... गहरे भाव

    ReplyDelete
  5. ek acchi prastuti,samvednao se paripurn,"Abhi hai haushla eska salamt, parinda es kadar ghayal nahi hai.....(seri)

    ReplyDelete
  6. काश! हम आज़ादी कि कीमत समझ पाते ???
    शुभकामनायें!

    ReplyDelete
  7. बहुत ही गहरे भाव .............नियति को स्वीकार करता

    ReplyDelete
  8. sahi kaha di apne....ye hum par bhi lagu hota hai...samjhe agar tho bahut gehri baat kahi apne panchi kay madhyam say...

    ReplyDelete
  9. तू पंख विहीन होता
    तो शायद कुछ सुकून पाता...
    नियति को स्वीकार करता
    और कुछ कम छटपटाता ati sundr bhaav

    ReplyDelete
  10. Anuji
    Beautiful poem from the little birds point of view. Brilliantly expressed.
    Have a great day Ram

    ReplyDelete
  11. आज हमारे देश की जनता का भी यही हाल है अपने ही घर में बेबस बंधक की तरह से जीने को मजबूर... गहन भाव

    ReplyDelete
  12. उए जो पंछी जिसका चित्र आपने खींचा है इस कविता में वह अपने पर होते हुए भी इस क़ैद को जीने की विवशता पाले हुए है। उसे आज़ाद होना ही चाहिए।

    ReplyDelete
  13. वाह बहुत सुँदर . क्रंदन से आन्दोलन , अच्छी रचना.

    ReplyDelete
  14. गाँधी जयंती क अवसर पर आज़ादी का महत्त्व कुछ और बढ़ जाता है...सुन्दर रचना...

    ReplyDelete
  15. सच है नियति को स्वीकारना सरल है बन्धनों को नहीं

    ReplyDelete
  16. पिजरें के पंछी रे तेरा दरद (दर्द) न जाने कोय,,,,,बहुत सुंदर भाव ,,,,,

    RECECNT POST: हम देख न सके,,,

    ReplyDelete
  17. सारी संभावनाएं पर फिर भी बेबस लाचार यही है जीवन की विडंबना जहाँ कैद है पंछी , पंख तो है फिर भी बिन पंख के से अहसास ... बहुत खूबसूरत हकीकत से रूबरू एक सुन्दर रचना |

    ReplyDelete
  18. वो अनंत विस्तार...
    कहाँ ये नन्हा सा पिंजरा,
    बेशक सोने का बना है..
    जहाँ तू अपने पंख तक नहीं पसार सकता..
    बाध्य है एकाकी जीवन जीने को

    बहुत भावनात्मक मिनी आंटी

    और अंत में बहुत सही कहा...

    तू पंख विहीन होता
    तो शायद कुछ सुकून पाता...
    नियति को स्वीकार करता
    और कुछ कम छटपटाता............


    शायद पंख नहीं होते उसके तो इतनी कुंठा न होती मन में....
    beautiful n very touchy poem...

    Regars with loads of love

    ReplyDelete
  19. बहुत गहनता से जीवन की वेदना व्यक्त की ...बहुत सुंदर रचना ...!!

    ReplyDelete
  20. पर पिंजरे में तो ताला लगा होगा ना :( मैंने भी एक कविता लिखी थी, जिसमें पक्षी पिंजरे से मौका पाकर उड़ जाता है, लेकिन फिर उसको उसी पिंजरे में वापस आना पड़ता है. क्योंकि वो उड़ना ही भूल चुका था और उसे बाज-चील जैसे पक्षियों से बचने का तरीका भी नहीं आता था :(
    सच में, कई बार चाहकर भी नहीं उड़ पाता. पक्षी कितना बेबस होता है. हम सभी बेबस हैं.
    बहुत अच्छी लगी कविता.

    ReplyDelete
  21. यह कविता पढ़ कर शिव मंगल सिंह सुमन की कविता याद आ गयी ....

    हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
    पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
    कनक-तीलियों से टकराकर
    पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

    हम बहता जल पीनेवाले
    मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
    कहीं भली है कटुक निबोरी
    कनक-कटोरी की मैदा से,

    स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
    अपनी गति, उड़ान सब भूले,
    बस सपनों में देख रहे हैं
    तरू की फुनगी पर के झूले।

    ऐसे थे अरमान कि उड़ते
    नील गगन की सीमा पाने,
    लाल किरण-सी चोंचखोल
    चुगते तारक-अनार के दाने।

    होती सीमाहीन क्षितिज से
    इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
    या तो क्षितिज मिलन बन जाता
    या तनती सॉंसों की डोरी।

    नीड़ न दो, चाहे टहनी का
    आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
    लेकिन पंख दिए हैं, तो
    आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।

    आभार

    ReplyDelete
  22. पंछी के पर होते हुए भी उड़ नहीं पाने की वेदना की मार्मिक प्रस्तुति !

    ReplyDelete
  23. किसी ने कहा है
    'पिंजरा तो पिंजरा
    सोने का या चाँदी का हो
    हीरे मोतियों से जड़ा हो
    पिंजरा तो पिंजरा'

    जीवन में आए जीव की पी़ड़ा को कहती सुंदर रचना.

    ReplyDelete
  24. Sahi he...aksar dekha he ese pakshiyon ko...
    Chhatpatate...band pinjre me :(

    ReplyDelete
  25. तेरे पर कटे नहीं है..
    इसलिए तू और भी दुखी लगता है..
    क्यूंकि तू आश्रित नहीं है...
    बंधक है .
    कुछ शब्‍द भीग गये हैं
    ना जाने क्‍या हुआ
    उनका मौन
    सुना नहीं था किसी ने ... भावमय करते शब्‍द आपकी अभिव्‍यक्ति मन को छूती हुई ...आभार

    ReplyDelete
  26. बचारे ्बेबस पंछी, करे तो क्या करे..सुन्दर प्रस्तुति..अनु..शुभकामनाएं..

    ReplyDelete
  27. आपकी रचना ह्रदय में बस गई वाह क्या बात है अनु जी उम्दा भाव पिरोये हैं

    ReplyDelete
  28. मनुष्य स्वयं गुलाम है। आज़ादी की भाषा वह ठीक से समझ नहीं सकता।

    ReplyDelete
  29. सच को बयान करती मार्मिक रचना !
    अपने बुने जाल में बंद...पंछी काटे गिन-गिन के दिन चार... :(

    ReplyDelete
  30. pinjare ke kaid se to udate hue shikar hona achha. Kyunki koi malal to nahin rahega ki pankh hote hue bhi ud na paye.

    udata panchhi.

    ReplyDelete
  31. pinjare ke kaid se to udate hue shikar hona achha. Kyunki koi malal to nahin rahega ki pankh hote hue bhi ud na paye.

    udata panchhi.

    ReplyDelete
  32. तुलसी दास जी लिखते हैं...

    जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सोई नृप अवसि नरक अधिकारी।

    फिर आगे लिखते हैं....

    कत विधि सृजि नारी जग माही। पराधीन सपनेहुँ सुख नाही।

    आपकी कविता पढ़कर चिंतन न हो यह हो नहीं सकता। बहुत बढ़िया।

    ReplyDelete
  33. आखिरी पंक्तियाँ सोचने को मजबूर कर गई .
    गहन भाव लिए उत्कृष्ट रचना .

    ReplyDelete
  34. "तेरे पर कटे नहीं है..
    इसलिए तू और भी दुखी लगता है..
    क्यूंकि तू आश्रित नहीं है...
    बंधक है"
    बहुत ही गहरे जज्बात...इन पक्तियों के सहारे |

    ReplyDelete
  35. पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द ना जाने कोय्…………उम्दा प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  36. sach me is pankhon wale panchhi aur ek padhi likhi sksham naari ki kahani ek samaan hai jo saksham hote hue bhi apne adhikaaron k liye aazad nahi hai.

    ReplyDelete
  37. पर होने न होने से क्या होता है,उड़ान को कोई कब तक बाँध सका है

    ReplyDelete
  38. शब् को रोज जगा देता है ,
    ऐसी ख्वाब सजा देता है |
    मुझको बंद कमरे में कैद कर के ,
    क्यूँ तू पंख लगा देता है ,
    ऐसी ख्वाब सजा देता है ||

    निसंदेह बहुत सुन्दर रचना |

    regards
    -आकाश

    ReplyDelete
  39. kitni sundarta se aapne un panchiyo ka dard ubhara hai ,kya kahu,.,.bahoot sundar

    ReplyDelete
  40. तेरे पर कटे नहीं है..
    इसलिए तू और भी दुखी लगता है..
    क्यूंकि तू आश्रित नहीं है...
    बंधक है .

    बहुत सुन्दर, आभार

    ReplyDelete

नए पुराने मौसम

मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही ! मोह...