मेरे हाथ से छिटक कर
प्रेम बिखर गया है
सारे आकाश में..
देखो सिंदूरी हो गयी है शाम
तेरी यादों ने फिर दस्तक दी है
हर शाम का सिलसिला है ये अब तो....
कमल ने समेट लिया
पागल भौरे को अपने आगोश में
आँगन में फूलता नीबू
अपने फूलों की महक से पागल किये दे रहा है
उफ़ ! बिलकुल तुम्हारे कोलोन जैसी खुशबू....
पंछी शोर मचाते लौट रहे हैं
अपने घोसलों की ओर.
उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
मुझे उदास कर देता है.
देखो बुरा न मानना....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
-अनु
प्रेम बिखर गया है
सारे आकाश में..
देखो सिंदूरी हो गयी है शाम
तेरी यादों ने फिर दस्तक दी है
हर शाम का सिलसिला है ये अब तो....
कमल ने समेट लिया
पागल भौरे को अपने आगोश में
आँगन में फूलता नीबू
अपने फूलों की महक से पागल किये दे रहा है
उफ़ ! बिलकुल तुम्हारे कोलोन जैसी खुशबू....
पंछी शोर मचाते लौट रहे हैं
अपने घोसलों की ओर.
उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
मुझे उदास कर देता है.
देखो बुरा न मानना....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
-अनु
ओह.....ये पंछी भी ना,बड़े नादान हैं !
ReplyDelete.
.निखार आ रहा है कबिताई में....।
:)...
ReplyDeletesundar prastuti,'gr gagan me ye panchi n udte ,to mohabbt kahani adhuri hi hoti, ye kavita n hoti ye kahani n hoti, उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
ReplyDeleteमुझे उदास कर देता है.
देखो बुरा न मानना....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
मोरा रे अंगनवा चंदनवा की गछिया, ताहि चढ़ी कुरुरे काग रे
ReplyDeleteसोने चोंच देवायस तोहे , मोरे पिया जो आवत आज रे
ये हर शाम
ReplyDeleteअनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
बहुत सुन्दर उकेरा है विरह को अनु ...:)
एक झोंका खुशबू का आ के छेड गया है ,
ReplyDeleteमुझे यकीं है ,
कुछ दिन में तुम आने वाली हो |
हमेशा की तरह बहुत सुन्दर |
सादर
बढ़िया ..
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब
ReplyDeleteअनुपम भावों का संगम लिये अंतिम पंक्तियां
आभार
ReplyDeleteचलिए इस बार थोडा पहले आ गए हैं तो कुछ तो कह सकते हैं इस नज़्म के बारे में...
मेरे हाथ से छिटक कर
प्रेम बिखर गया है
सारे आकाश में..
देखो सिंदूरी हो गयी है शाम
बिखर जाने दीजिये, इस दुनिया को प्यार के इस सिन्दूरी रंग की बहुत ज़रुरत है...
तेरी यादों ने फिर दस्तक दी है
हर शाम का सिलसिला है ये अब तो....
यादों का क्या है, यूँ ही वक़्त-बेवक्त चली आती हैं...
कमल ने समेट लिया
पागल भौरे को अपने आगोश में..
कितना वात्सल्य है न उस कैद में भी...
आँगन में फूलता नीबू
अपने फूलों की महक से पागल किये दे रहा है
उफ़ ! बिलकुल तुम्हारे कोलोन जैसी खुशबू....
प्यार भी अजीब चीज होती है न, सारी खुशबु जैसे आस-पास घिर जाती हैं इस ज़िन्दगी के...
पंछी शोर मचाते लौट रहे हैं
अपने घोसलों की ओर.
उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
मुझे उदास कर देता है.
देखो बुरा न मानना....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं...
उनका लौट आने का इंतज़ार बेकार नहीं हो सकता, वो भी लौट आयेंगे कभी-न-कभी इस प्यार भरी छावं-बसेरे की तलाश में....
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों से है... :(((
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं..... :(((
यादें जैसे सिमट कर एक वजूद बना देती हैं .... लगता है हर खूशबू में बस उसिकी की महक बसी है ... सुंदर रचना ।
ReplyDeletebahut sundar anu ji
ReplyDeleteदेखो बुरा न मानना....
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
उफ़ !!!!! दर्द का रिश्ता भी कितना अजीब होता है ना
बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही भावनामई रचना .बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
...बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त...विरह वेदना!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या कहने
सिंदूरी शाम और विरह .....बहुत खूबसूरती से उकेरी है ...
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना ...अनु ...
बहुत कोशिश करती हूँ उन्हें भूल जाने की,
ReplyDeleteये याद है कि नहीं भूलती याद दिलाने की...
बहुत सुन्दर लिखा है आपने अनुजी
दुःख का लम्हा, अज़ल आबाद लम्हा
ReplyDeleteवो परिंदा वक़्त के पार उतर गया कब का ......
-------------------------------------------
सुन्दर रचना
आँखों के उपवन में खिले आंसू के फूल ,
ReplyDeleteहर शाम डबडबाई है तेरे जाने के बाद।
आप की कविता से चैत की शामें याद आने लगी हैं।बहुत खूब ..........
loved the imagery and the whole poem is so very heart-wrenching yet beautiful.
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteआसमां में बिखरी चांदनी में नहाकर ,
किसी की याद में डुबकी लगाने लगा मन।
आज फिर वो गीत हौले से लबों पे उभर आया--
चंदा ओ चन्दा --
बेहतरीन प्रस्तुति के लिए नमन।
wow...thumbs up for such a lovely poetry...thanks for sharing ........
ReplyDeleteबहुत सुंदर मन के भाव ...
ReplyDeleteमनभावन प्रस्तुति...सुन्दर अनु..
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
....लाज़वाब पंक्तियाँ और भावों की बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति..
उफ़ क्या कहूँ शब्द नहीं हैं.....बहुत बहुत सुंदर हैं हर लब्ज़ :-)
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर
Sundar abhivyakti...anu g...
ReplyDeleteSundar abhivyakti....anu g.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteक्या कहूँ शब्द नहीं....बेहद सुंदर हर लब्ज़... :-)
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर....
देखो बुरा न मानना....
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ग़जब ... इन पंक्तियों का कौन क्या मुकाबला करेगा अनुजी।
दर्द को छुपाकर आख़िरकार उसी को बयाँ करती एक बेहतरीन पोस्ट ...
मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है बेतुकी खुशियाँ
अनूठा अंदाज ..विरह के भाव उभर कर आये हैं.
ReplyDeleteanulata ji...mujhe ap ka likha bht pasnd h... aur ye parindo se shikayat bhi bhot achi lagi.
ReplyDeleteयादों की खुशबुओं का कारवां भी खूब है ....
ReplyDeleteसुन्दर औए नाज़ुक सी कविता ....
अति सुन्दर रचना....
ReplyDelete:-)
उनका हर शाम यूँ चहचहाते हुए लौटना
ReplyDeleteमुझे उदास कर देता है.
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर....हर लफ्ज़ मानो मोती
अनु बहन!! क्या कहूँ, कहाँ से शुरू करूँ.. वत्स शेखर ने तो आज पूरी कविता छाप दी है, मेरे लिए कुछ रहा ही नहीं कहने को.. बस एक बात पर ही अपनी बात रखता हूँ:
ReplyDeleteमेरे हाथ से छिटक कर
प्रेम बिखर गया है
सारे आकाश में..
कैसे सम्भाला था इस प्रेम को, जो गिर गया और बिखर गया.. प्रेम को तो ह्रदय में सम्भाला जाता है जिससे उसका सिंदूरी रंग आत्मा तक को रंग जाता है.. इंतज़ार नहीं करना होता फिर उसका लौटते परिंदों के साथ... बल्कि उन परिंदों के गीत में स्वर मिलाकर गाने का मन होता है
लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल,
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल!!
खैर ये तो बड़े भाई होने का फंडा है.. थोड़ा वज़न जमाने के लिए.. कविता एकदम पेंटिंग है!!शानदार!! :) :)
:-) आपकी तो हर बात में वज़न है दादा...
Deleteविरह की बहुत उम्दा प्रस्तुति ,अनु जी,,,,बधाई
ReplyDeleterecent post: रूप संवारा नहीं,,,
वाकई शानदार। प्रकृति के रंग खूब बिखरे हैं इस कविता में...
ReplyDeleteइन परिंदों से तो मैं भी नाराज हूँ
ReplyDeleteहरियाली को इतना पसन्द करते हैं कि
जख्मों को भी हरा करने लग जाते हैं
और ये शाम को सिंदूर से क्या लेना-देना
फ़िर भी सिंदूरी क्यों हुई जाती है ?
शाम सिंदूरी और हरे जख्म
क्या गज़ब का कॉम्बीनेशन
मैं तो बिना पंखों ही परिंदा हो ली यादों में ...
बहुत सुन्दर अनु जी ...दिल कि कसक को उकेरती भावपूर्ण रचना !
ReplyDeleteअद्भुत बिम्ब से मन के दर्द को और गहराई मिली है।
ReplyDeleteइस रचना का वादा
ReplyDeleteपुनः मुलाकात का
शनिवारीय हलचल में
सादर आमंत्रित हैं आप सब
रंग जब बिखरता है तब भी एक अद्भुत कलाकृति रच देता है।
ReplyDeleteअनुभूतियों का सुंदर वर्ण-विक्षेपण।
कुछ घाव अक्सर हरे हो जाते हैं ...शुभकामनायें अनु !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनु जी
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
vaah badhiya bhav ...
शिकायत परिंदों से बहुत सुन्दर कविता है |बधाई
ReplyDeleteमन को भाती सुन्दर कविता
ReplyDeleteअरुन शर्मा
लगा जैसे रातरानी खिल गयी है ,पर फूल अपनी सुगंध खोज रहे हैं ... सस्नेह :)
ReplyDeleteशिकायत तो बिलकुल वाजिब है. लेकिन यही परिंदे किसी सुदूर के लिए हवा संदेशा भी तो ले जाते हैं:) बहुत सुन्दर कृति.
ReplyDeleteये हर शाम
ReplyDeleteअनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं....bahut sundar ...drd aane ka koi bhi bahana chukana nahi chahiye ..abhiwykti behtreen hai
प्रेमाअनुभूति के साथ आपने वीहर वियोग का सुन्दर समावेश किया है !
ReplyDeleteबड़ी प्यारी कविता है। कभी ऐसी शाम की तस्वीर खींच पाया तो इसे ले जाऊँग आपके ब्लॉग से और रख दूँगा तस्वीर के बगल में और यह भी लिख दूँगा.. तस्वीर अच्छी है पर जो बात इस शब्द चित्र में है वो तुझमे कहाँ!
ReplyDeleteबड़ी प्यारी कविता है। कभी शाम की ऐसी तस्वीर खींच पाया तो इसे ले जाऊँग आपके ब्लॉग से और रख दूँगा तस्वीर के बगल में और यह भी लिख दूँगा.. तस्वीर अच्छी है पर जो बात इस शब्द चित्र में है वो तुझमें कहाँ!
ReplyDeletesundar ati sundar , aap ki kavita padh kar mood fresh ho jata
ReplyDeletehai. refreshing
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं...
उनका लौट आने का इंतज़ार बेकार नहीं हो सकता, वो भी लौट आयेंगे कभी-न-कभी इस प्यार भरी छावं-बसेरे की तलाश में....
खुबसूरत पोस्ट ..बधाई
बेहद ताज़ी ....|
ReplyDeleteअच्छा है।
ReplyDeleteकुछ यादे बहुत खास होती है ,
ReplyDeleteजो हर पल ,हर घडी मेरे पास होती है ....
बहुत खूब अनुजी .........
achi
ReplyDeleteआपकी कविता की चर्चा यहाँ भी है...
ReplyDeletehttp://merecomment.blogspot.in/2012/12/blog-post.html
बहुत सुंदर।।।
ReplyDeleteप्रेमपीढ़ा को परिंदो की शिकायत कर क्या खूब बयां किया है...
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
ReplyDeleteइन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.bahut sundr Anu ji
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteye khalipan kahin bhar sa raha hai...bahut acchi!
ReplyDeletewah didi kya batau man may halchal machati hai apki ye rachna....yaad aur sham ke bela ka bahut gehra rishta hai
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteदेखो बुरा न मानना....
ReplyDeleteमुझे शिकायत तुमसे नहीं
इन परिंदों से है...
ये हर शाम
अनजाने ही सही
तुम्हारे न लौट आने के ज़ख्म को हरा कर देते हैं.....
अच्छा लगा ये शिकायती लहजा...