“शेल सिल्वरस्टीन” की एक प्रसिद्द कविता है – जो संवाद है एक बच्चे और बुज़ुर्ग के
बीच |
बच्चा कहता है – मैं खाते वक्त कभी चम्मच गिरा देता हूँ|
बुज़ुर्ग कहता है - मैं भी
बच्चा फुसफुसाता है - मैं कभी अपनी पैंट गीली कर देता हूँ |
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मैं रोता हूँ
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मगर बड़े मुझ पर ध्यान नहीं देते
बुज़ुर्ग अपना झुर्रियों वाला हाथ बच्चे के हाथ में रख कहता है- हाँ मैं समझ सकता हूँ तुम क्या कहना चाहते हो |
“बुढ़ापा बचपन की पुनरावृत्ति होता है” मगर ये ऐसा बचपन है जिसमें ऊर्जा नहीं है,सकारात्मक सोच का अभाव है और असुरक्षा का भाव बच्चों से कई गुना अधिक | इसलिए इन्हें बच्चों से कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह ही आवश्यकता है | अक्सर बुजुर्गों को ये कहते सुना जा सकता है कि अब हमें क्या चाहिए- बस दो वक्त की रोटी ! पर यकीन मानिए कि वृद्धावस्था में इन्हें दो रोटी भले एक मिले पर दो पल स्नेह के मिल जाएँ तो इनका जीवन आसान हो जाय| मगर ये गिने चुने दो पल भी कहाँ हैं आज बच्चों के पास ? और यही है सबसे बड़ी समस्या आजकल बुजुर्गों की | यूँ तो हमारा समाज माँ-बाप को ईश्वर का दर्ज़ा देता है मगर हमारे देश में ही सबसे अधिक बुज़ुर्ग तिरस्कृत और एकाकी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं ,विशेषकर बुज़ुर्ग औरतें |
जीवन के चौथे पहर में अकेलापन सबसे बड़ा अभिशाप है विशेषकर महिलाओं के लिए,क्यूंकि एक तो वे स्वभाव से ही संवेदनशील हैं और आरम्भ से उन्हें किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहने की आदत होती है| पहले पिता फिर भाई,पति और अंत में बेटों के बिना वे जीवन की कल्पना नहीं कर सकतीं,खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों में | अशिक्षित महिलाओं की हालत तो और भी बद्तर है |
हमारे समाज में शुरू से स्त्रियों को दोयम दर्ज़ा दिया गया है और अगर वे नौकरीपेशा हैं तब भी परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ उन पर डाल कर उन्हें केयर-टेकर बना दिया जाता है| और जब वे खुद दूसरों पर निर्भर रहने की स्थिति में आती हैं तब अपनों के द्वारा ही बोझ समझ ली जाती हैं |
बच्चा कहता है – मैं खाते वक्त कभी चम्मच गिरा देता हूँ|
बुज़ुर्ग कहता है - मैं भी
बच्चा फुसफुसाता है - मैं कभी अपनी पैंट गीली कर देता हूँ |
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मैं रोता हूँ
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मगर बड़े मुझ पर ध्यान नहीं देते
बुज़ुर्ग अपना झुर्रियों वाला हाथ बच्चे के हाथ में रख कहता है- हाँ मैं समझ सकता हूँ तुम क्या कहना चाहते हो |
“बुढ़ापा बचपन की पुनरावृत्ति होता है” मगर ये ऐसा बचपन है जिसमें ऊर्जा नहीं है,सकारात्मक सोच का अभाव है और असुरक्षा का भाव बच्चों से कई गुना अधिक | इसलिए इन्हें बच्चों से कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह ही आवश्यकता है | अक्सर बुजुर्गों को ये कहते सुना जा सकता है कि अब हमें क्या चाहिए- बस दो वक्त की रोटी ! पर यकीन मानिए कि वृद्धावस्था में इन्हें दो रोटी भले एक मिले पर दो पल स्नेह के मिल जाएँ तो इनका जीवन आसान हो जाय| मगर ये गिने चुने दो पल भी कहाँ हैं आज बच्चों के पास ? और यही है सबसे बड़ी समस्या आजकल बुजुर्गों की | यूँ तो हमारा समाज माँ-बाप को ईश्वर का दर्ज़ा देता है मगर हमारे देश में ही सबसे अधिक बुज़ुर्ग तिरस्कृत और एकाकी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं ,विशेषकर बुज़ुर्ग औरतें |
जीवन के चौथे पहर में अकेलापन सबसे बड़ा अभिशाप है विशेषकर महिलाओं के लिए,क्यूंकि एक तो वे स्वभाव से ही संवेदनशील हैं और आरम्भ से उन्हें किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहने की आदत होती है| पहले पिता फिर भाई,पति और अंत में बेटों के बिना वे जीवन की कल्पना नहीं कर सकतीं,खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों में | अशिक्षित महिलाओं की हालत तो और भी बद्तर है |
हमारे समाज में शुरू से स्त्रियों को दोयम दर्ज़ा दिया गया है और अगर वे नौकरीपेशा हैं तब भी परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ उन पर डाल कर उन्हें केयर-टेकर बना दिया जाता है| और जब वे खुद दूसरों पर निर्भर रहने की स्थिति में आती हैं तब अपनों के द्वारा ही बोझ समझ ली जाती हैं |
आसान नहीं है एक औरत
का अकेले रहना | बाज़ार हाट से सामान लाना,अस्पताल के चक्कर,बिजली पानी के बिल जमा
करना ऐसी कई समस्याएं हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ता है| ऐसी औरतें अपराधियों
के लिए भी आसान टार्गेट होती हैं | इसके अलावा जो भावनात्मक समस्या है वो सबसे बड़ी
है | परिवार को जोड़े रखने वाली कड़ी को जब स्वयं एकाकी जीवन जीना पड़े तो उसका अवसाद
में घिर जाना स्वाभाविक है | औरतें माँ बनते ही नानी दादी बनने के ख्वाब भी देखने
लगती हैं और ऐसे में नाती पोतों से दूरियाँ उन्हें दुःख देती हैं | कभी दादी नानी
से किस्से-कहानियां सुनकर उनकी गोद में सोने वाले बच्चे आज हेड-फोन लगाए सीने पर
मोबाइल रख कर सोते हैं तो फिर आखिर बुजुर्गों की आवश्यकता ही क्या हुई घर में |
एक सर्वे के मुताबिक़
हमारे देश में शहरी इलाके में रहने वाले हर छः में से एक वृद्ध को पर्याप्त पोषण
नहीं मिलता है और हर तीन में एक को दवाइयां और चिकित्सा सेवा उपलब्ध नहीं है| और
21.2% वृद्ध महिलायें अकेले रहने पर मजबूर हैं | स्थिति बेहद शर्मनाक और चिंतनीय
है और जिसके ज़िम्मेदार आज की युवा पीढ़ी है | एक समाचार में पढने में आया कि अकेले
रहने वाली वृद्धा एक सुबह अचेतन अवस्था में पायी गयीं और कोमा में चली गयी | वजह
सिर्फ इतनी थी कि परिजनों द्वारा उनकी डाइबिटीज़ की दवाई की पूर्ती समय पर नहीं की
गयी थी | क्या ऐसी उपेक्षा और लापरवाही झेलने के लिए ही माँ बच्चों को जन्म देती
है,पालती पोसती है ?
ढलती उम्र में अकेले रहने में एक सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ की | महिलायें परिवार की देखभाल करते करते अपने पोषण का ध्यान नहीं करती और फिर आर्थराइटिस ,हाइपरटेंशन,स्तन कैंसर ,एनीमिया आदि बीमारियों से अकेले जूझती हैं | तो सबसे आवश्यक है कि औरतें वक्त रहते चेतें और अपना ख्याल रखें |
ढलती उम्र में अकेले रहने में एक सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ की | महिलायें परिवार की देखभाल करते करते अपने पोषण का ध्यान नहीं करती और फिर आर्थराइटिस ,हाइपरटेंशन,स्तन कैंसर ,एनीमिया आदि बीमारियों से अकेले जूझती हैं | तो सबसे आवश्यक है कि औरतें वक्त रहते चेतें और अपना ख्याल रखें |
बेशक अकेले रहना
आसान नहीं है मगर अगर औरतें शुरू से जागरूक रहें तो आनेवाली कई समस्याओं से उबर सकती
हैं | पहले तो यदि औरत स्वयं नहीं कमाती हैं तो उनके पति या पिता का फ़र्ज़ है कि
उनके नाम पर पैसा जमा किया जाय,यथासंभव ज़मीन,मकान और गहने उनके नाम किये जाएँ
जिससे उनका भविष्य सुनिश्चित हो सके | महिलाओं को भी चाहिए कि वे बैंकिंग
सीखें,अपना लॉकर ऑपरेट करना ,एटीम से पैसे निकालना आदि काम स्वयं,बिना किसी की मदद
के करना सीखें | इस तरह वे अपने साथ होने वाली धोखाधड़ी से बची रह सकेंगी |
युवा पीढ़ी को समझाइश
दी जानी चाहिए कि बुजुर्गों को स्नेह और सामान दिया जाय मगर औरतों को भी उनके
अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए और उनके भीतर आत्मनिर्भर होने की हिम्मत जगनी चाहिए
| आस-पास की सभी ऐसी औरतें जो अकेली हैं, एकजुट होकर एक दूसरे का ख्याल रखें,
मिलकर वे नियमित रूप से डॉक्टरी चेकअप के लिए और किसी धार्मिक स्थल की यात्रा पर
भी जा सकती हैं | साथ मिल कर वे किसी पुस्तकालय की सदस्य बन जाएँ ,ये एक स्वास्थ
और सस्ता मनोरंजन होगा और उनका वक्त भी आसानी से कट जाएगा |
सरकार के पास भी
अकेली रहने वाली औरतों ,निराश्रित विधवाओं के लिए योजनाएं हैं जिनका लाभ वे ले
सकती हैं | कई किस्म की रियायतें और सुविधाएं भी सरकार देती है | बच्चों के द्वारा
देखभाल पाना माता-पिता का हक़ है | मगर हमारे देश में तकरीबन छः करोड़ वृद्ध
महिलायें हैं जिनमें से कई एकाकी जीवन जीने को बाध्य हैं |
घर में अकेले रहने से बेहतर है कि महिलायें वृद्धाश्रमों में रहें | वहां उनका ध्यान रखने वाले लोग होंगें,बातचीत करने को संगी साथी और वहां वे सुरक्षित भी होंगी |
सबसे ज्यादा आवश्यक है उनका स्वयं के प्रति विश्वास और जीवन जीने की ललक , फिर क्या संभव नहीं | एक बुज़ुर्ग शिक्षिका को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती थी जो अतिसंपन्न परिवार से थीं पर अकेली रहती थीं और उनका एक हाथ भी नहीं था| यदाकदा कभी बिजली का मीटर देखने जैसे अटपटे कामों के अलावा उन्होंने कभी किसी से मदद नहीं ली | स्वयं पर विश्वास ही उनका संबल रहा होगा |
घर में अकेले रहने से बेहतर है कि महिलायें वृद्धाश्रमों में रहें | वहां उनका ध्यान रखने वाले लोग होंगें,बातचीत करने को संगी साथी और वहां वे सुरक्षित भी होंगी |
सबसे ज्यादा आवश्यक है उनका स्वयं के प्रति विश्वास और जीवन जीने की ललक , फिर क्या संभव नहीं | एक बुज़ुर्ग शिक्षिका को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती थी जो अतिसंपन्न परिवार से थीं पर अकेली रहती थीं और उनका एक हाथ भी नहीं था| यदाकदा कभी बिजली का मीटर देखने जैसे अटपटे कामों के अलावा उन्होंने कभी किसी से मदद नहीं ली | स्वयं पर विश्वास ही उनका संबल रहा होगा |
वर्तमान स्थिती बेहद
कष्टदायी है | समाज से और युवावर्ग से एक अपील है कि वे समझें कि स्त्रियाँ दैहिक
रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी पुरुषों से भिन्न हैं | उन्हें ज्यादा
प्रेम और साथ की आवश्यकता है | बच्चों को इस बात का एहसास हो कि जड़ों को सिंचित
किये बिना वृक्ष कैसे हरा रहेगा,कैसे पल्लवित और पुष्पित होगा | अपने बुजुर्गों के
टिमटिमाते दिए की लौ को अपनी हथेलियों की आड़ दीजिये , जिससे सदा रोशन रहे आपका
आँगन भी |
-अनुलता-
बहुत बेहतरीन लिखा है आपने अनुलता जी.. आज के दौर में सुरक्षा को लेकर समाज में बुजुर्गो कि दशा दयनीय है...ये हमारी विरासत है हमें इस और ध्यान देना होगा
ReplyDeleteबुजुर्गों की उपेक्षा नहीं बल्कि उन्हें भावनात्मक सहारे की ज्यादा जरूरत है,आज के समय में.लेकिन आज का सुखवादी समाज अपने हित से आगे बढ़कर कुछ देखता ही नहीं.
ReplyDeleteउत्कृष्ट आलेख.
बहुत विचारपरक...सार्थक लेख...| बधाई...|
ReplyDeleteबेहतर लेख के लिए बधाई हो !
ReplyDeleteवृद्धावस्था में इन्हें दो रोटी भले एक मिले पर दो पल स्नेह के मिल जाएँ तो इनका जीवन आसान हो जाय |
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें ।
RECENT POST - फिर से होली आई.
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन संदीप उन्नीकृष्णन अमर रहे - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शुक्रिया शिवम्.
Deletebahut sundar aur samyik .....
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
ReplyDeleteसुंदर रचना...रंगों से सराबोर होली की शुभकामनायें...
ReplyDeleteजरूरत हर बुज़ुर्ग को होती है ... कि अपना कहे कोई उनको .... बैठ दो बात करे ... पर आज के दौर में जहाँ संवेदनाएं खत्म हो रही हैं .. ये समस्या बढती जा रही है ... खुद पालन कर के बच्चों में ये संस्कार डालने जरूरी हैं आज .. जिससे आपका बुढापा भी सुखी बीत सके ...
ReplyDeleteहोली कि हार्दिक बधाई ...
जिनको माँ घर में बोझ लगे, वे नाकारा क्या समझेंगे !
ReplyDeleteपशुओं कि तरह मारे फिरते, वे आवारा क्या समझेंगे !
बहुत ही समसामयिक लेखन |
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें..
शेल सिल्वरस्टीन की यह रचना मैंने भी पढ़ी है बहुत सुन्दर है !
ReplyDeleteसटीक सार्थक लेख जिसमे समस्या और समाधान का बढ़िया विश्लेषण किया है बधाई अनु, और होली की आपको भी ढेरो शुभकामनायें :)
आभार शास्त्री जी !
ReplyDeleteवाह...सुन्दर पोस्ट...
ReplyDeleteआप को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हास्यकविता/ जोरू का गुलाम
बहुत सारगर्भित और सटीक पोस्ट...होली की आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteबहुत सटीक सार्थक व प्रेरक ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
बुझती आँखों को रोशन करता ये लेख ....काश ! कुछ दिलों की धड़कन बन जाएँ .....शुभकामनायें अपनों से स्नेह रखने वालों को....... ....
ReplyDeleteबहुत सटीक सार्थक व प्रेरक रचना अनु.. ...शुभकामनायें
ReplyDeleteएक विचारणीय मुद्दे पर भावपूर्ण प्रस्तुति .. सही में जीवन भर सहारा देने वाले हाथ जब कांपने लगते हैं तो उन्हें सहारा देने वालों के मन में झिझक .... शर्मनाक है ... विचारपूर्ण रचना के लिए बधाई !
ReplyDeleteअपने बुजुर्गों के टिमटिमाते दिए की लौ को अपनी हथेलियों की आड़ दीजिये................वाह
ReplyDeleteवृद्धावस्था में इन्हें दो रोटी भले एक मिले पर दो पल स्नेह के मिल जाएँ तो इनका जीवन आसान हो जाय
ReplyDeleteसच कहा आपने ...सार्थक लेखन अनु जी
बहुत ही सुन्दर और सम्मानित लेख...
ReplyDeleteउम्दा पोस्ट...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@चुनाव का मौसम
बहुत सुन्दर व सार्थक आलेख !
ReplyDeleteजगाना और जागना दोनों बहुत ही ज़रूरी हो गए हैं !
<3
हमारे अपने बड़े-बुजुर्गों की मनःस्थिति को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है आपने। सुंदर व सार्थक लेखन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व सार्थक आलेख ! मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। शुभ रात्रि।
ReplyDeleteबहुत सटीक व प्रेरक रचना. ...शुभकामनायें
ReplyDeleteसमस्या और समाधान का सटीक विश्लेषण … विचारणीय आलेख
ReplyDeleteबढती उम्र में होने वाली कठिनाईयों पर और विशेष रूप से महिलाओं पर लिखा एक सार्थक लेख .
ReplyDelete