इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Tuesday, February 11, 2014


तुम्हारी याद का
हल्दी चन्दन
माथे पर लगाए
जोगन बन जाना
मेरे लिए
आसान नहीं....

कि सीले मौसम में
जब नदियाँ बदहवासी में
दौड़ रही होती हैं
समंदर की ओर,
प्रकृति उकेरती है
लुभावने चित्र,
और
बूंदें
हटा कर धूल की चादर,
निर्वस्त्र कर देतीं हैं पत्तों को......

भीगा होता बहिर् और अंतस !
तभी  
कहीं भीतर से
रिस आता है ललाट पर
वो अभ्रक वाला
लाल सिंदूर
और उसी क्षण
खंडित हो जाता है
मेरा जोग !
भंग हो जाती है
मेरी सारी तपस्या !

~अनुलता ~

18 comments:

  1. तुम्हारी याद का
    हल्दी चन्दन
    माथे पर लगाए
    जोगन बन जाना
    मेरे लिए
    आसान नहीं....

    बहुत ही खूबसूरत कविता अनु जी बधाई |

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  2. बहुत खूब । वैसे भी प्रेम की पराकाष्ठा जोग है और जोग की पराकाष्ठा प्रेम ।

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  3. ए री मैं तो प्रेम दीवानी!! जा तन लागे सो तन जाने, ऐसी है इस जोग की माया!!

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  4. लाजबाब खूबसूरत प्रस्तुति...! अनु जी ,,,
    RECENT POST -: पिता

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  5. आखिरी पंक्तियाँ सुन्दरतम..
    लाजबाब.

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  6. प्रेम में जोग और जोग में प्रेम दोनों एक दूसरे में मिले हुए हैं
    बहुत सुन्दर !

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  7. कहीं भीतर से
    रिस आता है ललाट पर
    वो अभ्रक वाला
    लाल सिंदूर
    और उसी क्षण
    खंडित हो जाता है
    मेरा जोग !
    भंग हो जाती है
    मेरी सारी तपस्या !...अनुपम भाव संयोजन लिए बहुत ही सुंदर गहन भाव अभिव्यक्ति।

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  8. रिस आता है ललाट पर
    वो अभ्रक वाला
    लाल सिंदूर
    और उसी क्षण
    खंडित हो जाता है
    मेरा जोग !
    भंग हो जाती है
    मेरी सारी तपस्या !
    bahut hi sunder bhav hain
    badhai
    rachana

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  9. और उसी क्षण
    खंडित हो जाता है
    मेरा जोग !.......
    अनुपम भाव

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  10. सूंदर प्रस्तुति।।।

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  11. बहुत सुन्दर रचना अनु,

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  12. प्रेम तो अपने आप में चरम स्थिति है .. उसे जोगन या सुहागन की क्या परवा ...
    प्रेम के गहरे भाव लिए ...

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  13. माथे पर लगाए
    जोगन बन जाना
    मेरे लिए
    आसान नहीं....

    बहुत ही खूबसूरत कविता अनु जी बधाई |

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  14. योग तो स्वरुप बदलता है, आधार वही रहता है - चाहे तपस्या हो, या प्रेम - योग दोनों ही ओर से ईश्वरोन्मुख ही है!
    सुन्दर रचना अनु दी!

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