तुम्हारी याद का
हल्दी चन्दन
माथे पर लगाए
जोगन बन जाना
मेरे लिए
आसान नहीं....
कि सीले मौसम में
जब नदियाँ बदहवासी में
दौड़ रही होती हैं
समंदर की ओर,
प्रकृति उकेरती है
लुभावने चित्र,
और
बूंदें
हटा कर धूल की चादर,
निर्वस्त्र कर देतीं हैं पत्तों को......
भीगा होता बहिर् और अंतस !
तभी
कहीं भीतर से
रिस आता है ललाट पर
वो अभ्रक वाला
लाल सिंदूर
और उसी क्षण
खंडित हो जाता है
मेरा जोग !
भंग हो जाती है
मेरी सारी तपस्या !
~अनुलता ~
तुम्हारी याद का
ReplyDeleteहल्दी चन्दन
माथे पर लगाए
जोगन बन जाना
मेरे लिए
आसान नहीं....
बहुत ही खूबसूरत कविता अनु जी बधाई |
बहुत खूब । वैसे भी प्रेम की पराकाष्ठा जोग है और जोग की पराकाष्ठा प्रेम ।
ReplyDeleteए री मैं तो प्रेम दीवानी!! जा तन लागे सो तन जाने, ऐसी है इस जोग की माया!!
ReplyDeleteलाजबाब खूबसूरत प्रस्तुति...! अनु जी ,,,
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
आखिरी पंक्तियाँ सुन्दरतम..
ReplyDeleteलाजबाब.
वाह, सुंदर!
ReplyDeleteप्रेम में जोग और जोग में प्रेम दोनों एक दूसरे में मिले हुए हैं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
कहीं भीतर से
ReplyDeleteरिस आता है ललाट पर
वो अभ्रक वाला
लाल सिंदूर
और उसी क्षण
खंडित हो जाता है
मेरा जोग !
भंग हो जाती है
मेरी सारी तपस्या !...अनुपम भाव संयोजन लिए बहुत ही सुंदर गहन भाव अभिव्यक्ति।
रिस आता है ललाट पर
ReplyDeleteवो अभ्रक वाला
लाल सिंदूर
और उसी क्षण
खंडित हो जाता है
मेरा जोग !
भंग हो जाती है
मेरी सारी तपस्या !
bahut hi sunder bhav hain
badhai
rachana
और उसी क्षण
ReplyDeleteखंडित हो जाता है
मेरा जोग !.......
अनुपम भाव
सूंदर प्रस्तुति।।।
ReplyDeleteBadiya hai
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना अनु,
ReplyDeleteप्रेम तो अपने आप में चरम स्थिति है .. उसे जोगन या सुहागन की क्या परवा ...
ReplyDeleteप्रेम के गहरे भाव लिए ...
सुंदर रचना !
ReplyDeleteमाथे पर लगाए
ReplyDeleteजोगन बन जाना
मेरे लिए
आसान नहीं....
बहुत ही खूबसूरत कविता अनु जी बधाई |
प्रेम पगी रचना .
ReplyDeleteयोग तो स्वरुप बदलता है, आधार वही रहता है - चाहे तपस्या हो, या प्रेम - योग दोनों ही ओर से ईश्वरोन्मुख ही है!
ReplyDeleteसुन्दर रचना अनु दी!