सज़ाएं कभी ख़त्म नहीं होतीं.............किये, अनकिये अपराधों की सदायें जब तब कुरेद डालती हैं भरते घावों की पपड़ियों को |
वक्त ज़ख्मों को भरता है...नासूर रिसते हैं ताउम्र.......
जो गलतियाँ हम करते हैं उसके लिए खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाते हैं और अपने ही नाखूनों से अपना अंतर्मन खुरचते रहते हैं .शायद अपने लिए यही सजा मुक़र्रर कर लेते हैं |
और अनकिये अपराधों की सज़ा तो दोहरी होती है | बेबसी की यातनाएं सहता लहुलुहान मन बस एक काल्पनिक अदालत में खड़ा चीखता रह जाता है और उनकी दलीलें टकरा-टकरा कर वापस उसी पर प्रहार करती रहती हैं |
कभी हम खुद को कोसते हैं कभी कोई यूँ ही आता जाता हमारे ज़ख्मों के सूखे दरवाजों पर दस्तक देता निकल जाता हैं...बस यूँ ही !!
तारीखें बदलती हैं ....वक्त के साथ सब कुछ घटता जाता है ,सिर्फ अपराध वहीं के वहीं रह जाते हैं ,उतने ही संगीन |
सज़ाएँ पूरी करके भी अपराधी रहता अपराधी ही है |और उसे जीना होता इन बेचैनियों का बोझ ढोते हुए |
किसी निरपराधी को सज़ा मिले तो मौत ही मिले , कि आत्मा के घुटने से सांस का घुट जाना बेहतर है....
~अनु ~
[कुछ ख़याल यूँ ही आते हैं ज़हन में......और उन्हें कह देना सुकून देता है....बस थोडा सा आराम बेचैनियों को....]
वक्त ज़ख्मों को भरता है...नासूर रिसते हैं ताउम्र.......
जो गलतियाँ हम करते हैं उसके लिए खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाते हैं और अपने ही नाखूनों से अपना अंतर्मन खुरचते रहते हैं .शायद अपने लिए यही सजा मुक़र्रर कर लेते हैं |
और अनकिये अपराधों की सज़ा तो दोहरी होती है | बेबसी की यातनाएं सहता लहुलुहान मन बस एक काल्पनिक अदालत में खड़ा चीखता रह जाता है और उनकी दलीलें टकरा-टकरा कर वापस उसी पर प्रहार करती रहती हैं |
कभी हम खुद को कोसते हैं कभी कोई यूँ ही आता जाता हमारे ज़ख्मों के सूखे दरवाजों पर दस्तक देता निकल जाता हैं...बस यूँ ही !!
तारीखें बदलती हैं ....वक्त के साथ सब कुछ घटता जाता है ,सिर्फ अपराध वहीं के वहीं रह जाते हैं ,उतने ही संगीन |
सज़ाएँ पूरी करके भी अपराधी रहता अपराधी ही है |और उसे जीना होता इन बेचैनियों का बोझ ढोते हुए |
किसी निरपराधी को सज़ा मिले तो मौत ही मिले , कि आत्मा के घुटने से सांस का घुट जाना बेहतर है....
~अनु ~
[कुछ ख़याल यूँ ही आते हैं ज़हन में......और उन्हें कह देना सुकून देता है....बस थोडा सा आराम बेचैनियों को....]
बढ़िया प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरेया-
बढ़िया प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरेया-
ये भी द्वंद्व है .... वैचारिक भाव
ReplyDeleteविचारों में उबाल , मनःस्थिति उवाच.
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteवैचारिक अंतर्द्वंदों को बहुत खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है.
ReplyDeletewaah bahut badhiya abhiwykti yah bhi man ke bhaaw hai
ReplyDeleteजग से कोई भाग ले प्राणी खुद से भाग न पाये...क्राइम और पनिशमेंट का यही सिलसिला है...
ReplyDeletevery profound... resonates with me
ReplyDeleteठीक बात है..
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति.....
ReplyDeleteउन गलतियों का एहसास ही बड़ी बात है..
ReplyDeleteguilt is a severe punishment.. it consumes to the core
ReplyDeleteNice read
इस द्वैत में ही संसार समाया है, बेहतरीन रचना.
ReplyDeleteरामराम.
behad hi khaas..
ReplyDeleteभावनाओं का सुन्दर चित्रण ..
ReplyDeletesach kaha ......
ReplyDeleteनिःशब्द ...
ReplyDeleteमन के सैलाब को कई बार कागज़ पे उतारना ज्यादा अच्छा होता है ...
तारीखें बदलती हैं ....वक्त के साथ सब कुछ घटता जाता है ,सिर्फ अपराध वहीं के वहीं रह जाते हैं ,उतने ही संगीन |
ReplyDelete.... बहुत सही कहा आपने
आभार
सही कहा अपने, अपराध बोध जीने नहीं देता, बहुत सुन्दर भाव हैं...
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :- 21/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -47 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
इस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :- 21/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक - 47 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
आभार राजीव जी.
Deleteअपराधी तो फिर भी बिना अपराधबोध के जी लेते हैं , निरपराधी जीवन भर दबे रहते हैं बिना गुनाह की सजा पा कर !
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी !
तुमने हमारे मनमें तो खलबली मचा दी अनु...! सशक्त और सच्चा सच ..!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया !!
ReplyDeleteभर जाते हैं घाव तो, भरें नहीं नासूर।
ReplyDeleteमामूली आघात भी, चोट करें भरपूर।।
इसीलिये भारतीय-जीवन की व्यवहारिक-सामाजिक व्यवस्था है ...ईश्वर प्रणनिधान .... यह ईश्वर की मर्जी थी ...हमारे ही किसी पूर्व पाप-कर्म का फल होगा ... हमारा भाग्य ....इस पर संतोष करके व्यक्ति घावों को नासूर न बनने देकर ....बीती ताहि बिसर दे के अनुसार जीवन के अगले क्रम में कदम बढाता है..... और जीवन ठहरता नहीं है...
ReplyDeleteआंदोलित करने वाली रचना
ReplyDelete
ReplyDeleteसुन्दर है भावाभिव्यक्ति।
किसी निरपराधी को सज़ा मिले तो मौत ही मिले , कि आत्मा के घुटने से सांस का घुट जाना बेहतर है....
ReplyDeleteबहुत ही सही बात..
लग रहा है खुद को ही तुम्हारे शब्दों में पढ़ रही हूँ ..... सस्नेह :)
ReplyDeleteअनु मैम बहुत बढ़ियाँ अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteकभी हमारे ब्लॉग पर भी पधारे....!!!
खामोशियाँ
काफी सुंदर चित्रण ..... !!!
ReplyDeleteकभी हमारे ब्लॉग पर भी पधारे.....!!!
खामोशियाँ
उम्दा अभिव्यक्ति
ReplyDeleteऔर अनकिये अपराधों की सज़ा तो दोहरी होती है | बेबसी की यातनाएं सहता लहुलुहान मन बस एक काल्पनिक अदालत में खड़ा चीखता रह जाता है और उनकी दलीलें टकरा-टकरा कर वापस उसी पर प्रहार करती रहती हैं |
ReplyDeleteविचारों की उथल पथल भी सत्य को उजागर कर रही है ...