किसी ढलती शाम को
सूरज की एक किरण खींच कर
मांग में रख देने भर से
पुरुष पा जाता है स्त्री पर सम्पूर्ण अधिकार |
पसीने के साथ बह आता है सिंदूरी रंग स्त्री की आँखों तक
और तुम्हें लगता है वो दृष्टिहीन हो गयी |
मांग का टीका गर्व से धारण कर
वो ढँक लेती है अपने माथे की लकीरें
हरी लाल चूड़ियों से कलाई को भरने वाली स्त्रियाँ
इन्हें हथकड़ी नहीं समझतीं ,
बल्कि इसकी खनक के आगे
अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
वे उतार नहीं फेंकती
तलुओं पर चुभते बिछुए ,
भागते पैरों पर
पहन लेती हैं घुंघरु वाली मोटी पायलें
वो नहीं देती किसी को अधिकार
इन्हें बेड़ियाँ कहने का |
यूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
अपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
-अनुलता-
सूरज की एक किरण खींच कर
मांग में रख देने भर से
पुरुष पा जाता है स्त्री पर सम्पूर्ण अधिकार |
पसीने के साथ बह आता है सिंदूरी रंग स्त्री की आँखों तक
और तुम्हें लगता है वो दृष्टिहीन हो गयी |
मांग का टीका गर्व से धारण कर
वो ढँक लेती है अपने माथे की लकीरें
हरी लाल चूड़ियों से कलाई को भरने वाली स्त्रियाँ
इन्हें हथकड़ी नहीं समझतीं ,
बल्कि इसकी खनक के आगे
अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
वे उतार नहीं फेंकती
तलुओं पर चुभते बिछुए ,
भागते पैरों पर
पहन लेती हैं घुंघरु वाली मोटी पायलें
वो नहीं देती किसी को अधिकार
इन्हें बेड़ियाँ कहने का |
यूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
अपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
-अनुलता-
इस कविता को मनीषा पांडे की फेसबुक वाल पर चिपका दें :) फिर वह आपको स्त्री स्वतंत्रता पर भाषण देंगी :):) वैसे कविता पर आते हुए, अनुलता का दूसरा नाम प्रेम है। लिखती रहें...
ReplyDelete:)
Deletesahi kaha di......aur hamesha karti rahengi.......shringar bedi nahi balki gehna hai hamara....hamare pyar ka...superb ...
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteएकदम सही ...वाकई प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती। वह तो कुछ वैसा ही होता है जैसे
ReplyDelete"जाकी रही भावना जैसे, प्रभू मूरत देखी तिन तैसी" बहुत ही सुंदर भाव संयोजन से सजी भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
दीदी
ReplyDeleteअच्छी रचना
कोई और परिभाषा खोजूँ क्या
शायद
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
आप सच कहती हैं
सादर
गनीमत प्रतिक्रिया पर केप्चा का ग्रहण नहीं लगा है
ReplyDeleteहां ये जेवर कहीं न कहीं औरतों के लिए बनाये गये बंधेज हो सकते हैं, पर ये समर्पण और प्रेम के भाव हीं हैं जो औरत इन्हें आभूषण मानकर स्वीकार करतीं हैं.. बहुत सुन्दर लिखा है अनु जी।
ReplyDeletem borrowing these words with due respect .. अनुलता का दूसरा नाम प्रेम है। :)
ReplyDeleteBahut pyari kavita :)
monali <3
ReplyDelete:)
Deleteसुन्दर प्रस्तुति -
ReplyDeleteशुभकामनायें आदरणीया-
kya khub kahi hai apne....shabd hi nhi baya kar dun....ati sundar
ReplyDeleteSo heart felt and soulful thoughts :)
ReplyDeleteबहुत सही कहा .....
ReplyDeleteप्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती.
बहुत सुन्दर .
नई पोस्ट : भारतीय संस्कृति और कमल
नई पोस्ट : पुरानी डायरी के फटे पन्ने
यूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
ReplyDeleteअपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!
लेकिन पुरुष इसे कभी न समझ पाया ...इसे सदा वर्चस्व का ही नाम दिया
Dil ko chhoo lene waali rachanaa....satya kaa anaavaran...atulneey ..Badhaaee..!
ReplyDeleteप्रेम सिक्त रचना . बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ........
ReplyDeleteप्रेम एहसास है ,इसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता -बहुत सटीक अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteनवीनतम पोस्ट मिट्टी का खिलौना !
नई पोस्ट साधू या शैतान
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती | आपने सच कहा !
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
प्रेम या द्वंद.......... ?
ReplyDelete..उफ्फ! आसानी से नहीं मिलता यह एक चुटकी सिंदूर भी!!
ReplyDeleteप्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
ReplyDeleteबहुत सशक्त अभिव्यक्ति ....!!
सुंदर रचना अनु ...!!
मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteबल्कि इसकी खनक के आगे
ReplyDeleteअनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
बहुत सुंदर नाज़ुक अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteप्रेम बोझ तो कतई नहीं हो सकता...हाँ समर्पण ज़रूर है...पर दोनों तरफ से...
ReplyDeleteWaah....aapne aurat ko kitne sunder rup mai prastut kiya hai...badhaiya :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteपर क्या ये प्रदर्शन हमेशा उन्मुक्त होता है कई बार परंपरा का निर्वाह भी तो होता है।
अभिव्यक्ति का जबाब नही |
ReplyDelete"न आँखों से कभी ढले आंसू न चेहरे पे शिकस्ती के निशान उभरे
मैं इस सलीके से रोया हूँ , पूरी उम्र भर , हंस हंस कर ."
“अजेय-असीम{Unlimited Potential}”
मांग का टीका गर्व से धारण कर
ReplyDeleteवो ढँक लेती है अपने माथे की लकीरें
हरी लाल चूड़ियों से कलाई को भरने वाली स्त्रियाँ
इन्हें हथकड़ी नहीं समझतीं ,
बल्कि इसकी खनक के आगे
अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
दिल को छू गया नारी का यह समर्पण यह प्रेम !!!
beautiful
ReplyDeleteदो व्यक्तियों के बीच प्रेम की परिभाषा सिर्फ वे दो इंसान ही तय कर सकते हैं , जो उस समय प्रेम में हैं। उसे अपनी सुविधा से दकियानूसी या प्रगतिशील निर्धारित करना संभव ही नहीं है।
ReplyDeleteक्या कमाल है , कल ही लिखा यह स्टेटस।
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है अनु जी
प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeleteशब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)
ये सब तो श्रृंगार है भारतीय नारी के..
ReplyDeleteइन्हें बेड़ियाँ कैसे कहने दे सकती है..
बहुत ही सुन्दर रचना...
:-)
बहुत ही खूबसूरत रचना.
ReplyDeleteरामराम.
वाह!
ReplyDelete"अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
ReplyDeleteवे उतार नहीं फेंकती
तलुओं पर चुभते बिछुए ,
भागते पैरों पर
पहन लेती हैं घुंघरु वाली मोटी पायलें
वो नहीं देती किसी को अधिकार
इन्हें बेड़ियाँ कहने का |"
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बेहतरीन / उत्कृष्ट रचना
बहुत अनुपम लेखन
आभार
बहा ले गयी आप..
ReplyDeletesindoor .........prem ki preeti :)
ReplyDeleteआभार आपका.
ReplyDeleteशुक्रिया यशवंत !
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भावों को सरलता एवं प्रभावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया है .
ReplyDelete
ReplyDeleteयूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
अपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!.....................खूबसूरत /उत्कृष्ट रचना
खूबसूरत रचना
ReplyDeleteभावपूर्ण खूबसूरत रचना ...
ReplyDeleteक्या बात है ... हमेशा की तरह जबरदस्त लिख्खा है
ReplyDeleteबहुत खूब .... प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती ... पर इन भौतिक बातों एमिन भी प्रेम कहाँ होता है ..
ReplyDeleteगहरे परिपेक्ष में लिखी रचना ...
यूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
ReplyDeleteअपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!
प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |
. सही कहा आपने ...
स्त्री और पुरुष के लिए प्रेम के मायने एक होकर भी एक न होना मन में हरदम एक कसक जगाता है ..
तभी तो तुम अतुलनीय हो
ReplyDeleteसृजक हो, संस्कारों,
मूल्यों और सृष्टि का
अमूल्य उपहार हो ...
स्त्रियाँ इसी तरह भ्रम में जीती हैं ...
ReplyDeleteबड़ी बेबाक तस्वीर खींच दी ........ सस्नेह :)
ReplyDelete:) ... जो भी मान लो ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है...मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
ReplyDeletehttp://iwillrocknow.blogspot.in/