नदी हूँ मैं
नदिया के जैसी ही
चाहत मेरी है...
समंदर! तू कितना खारा है
फिर भी मुझे जान से प्यारा है....
इतराती,इठलाती
मेरी हर मस्ती पर तू
रोक लगा देता है
ठहरा देता है मुझे...
पर मेरा मन तो तेरे लिए बावरा है
समंदर ! तू मुझे जान से प्यारा है...
तुझ में मिल कर
मैं भी खारी हो जाती
नदी,नदी न रहती
वो भी समंदर हो जाती..
मुझे मेरा अस्तित्व खोना भी गवारा है
तू मुझे जान से जो प्यारा है...
अब न कोई फूल खिले मुझमें
न प्यास बुझे प्यासे की
मुझ जैसी जाने कितनी को
तूने खुद में उतारा है
मैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
क्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है...
-अनु
अच्छी लगी मीठे से खारे हो जाने की यात्रा...! प्रेम "दोऊ मिलकर एक बरन" हो जाने का नाम है.. और यही है एक नदी की तरह बहने और पा लेने का नाम!! लाली देखन मैं चली-मैं भी हो गयी लाल!!
ReplyDeleteनदी हूँ मैं
ReplyDeleteनदिया के जैसी ही
चाहत मेरी है...
समंदर! तू कितना खारा है
फिर भी मुझे जान से प्यारा है....
बहुत ही सुन्दर और सहज शब्दों से रची गयी कविता बधाई अनु जी |
तुझ में मिल कर
Deleteमैं भी खारी हो जाती
नदी,नदी न रहती
वो भी समंदर हो जाती..
मुझे मेरा अस्तित्व खोना भी गवारा है
तू मुझे जान से जो प्यारा है... .anu ji bahut hi sundar prem mayi rachna , dil ko bahut hi pasand aa gayi , prem ke sabhi bhavo ko dikha gayi samarpan ka bhav hai yah asli prem darsha gayi , hardik badhai sundar srajan ke liye
प्रेम में समर्पण की सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDelete:-)
बढ़िया नदी बहाव है, निर्मल भाव समान |
ReplyDeleteसदा सर्वदा जल रहे, करे जगत कल्याण ||
सुंदर सहज शब्दों की उत्कृष्ट रचना,,,,
ReplyDeleterecent post : प्यार न भूले,,,
वाह!!बहुत सुंदर व्याख्या समर्पण की
ReplyDeleteउत्कृष्ट अभिव्यक्ति!!
सस्नेह
किसी के सीसे में उतर जाने की यातना है या मुक्ति प्राप्ति का सुख यह तो ्न की धारणा मात्र है। पर हर यात्रा का वास्तविक स्वरूप यही होता है।स्वयं के अस्तित्व से मुक्ति,किसी के अस्तित्व में ही पूर्ण समर्पण ही शायद यथार्थ का सुख है।
ReplyDeleteसादर-
मेरी नयी पोस्ट - विचार बनायें जीवन.....
बेहतरीन कविता अनुलता जी। नदी और समंदर के रिश्ते की बेहतरीन पड़ताल की है आपने। नदी को वाकई समंदर जान से प्यारा है। इसीलिए वह अपना अस्तित्व खोकर भी उस तक तमाम रास्तों से भटकते हुए उस तक पहुंचना चाहती है। लेकिन यह नदी का एकतरफा समर्पण है। समंदर के नदी से प्रेम की भावना और सिद्दत का एहसास भावों को एकतरफा और अधूरा सा छोड़ देता है। सुंदर कविता का स्वागत है।
ReplyDeleteवाह, बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteनदिया से दरिया....
ReplyDeleteदरिया से सागर.....
बस यही क्रम....
जन्म-जन्मांतर......
प्रेम सच ही बावरा कर देता है तभी न नदिया भी खारी हो कर भी खुश है .... सुंदर रचना ।
ReplyDeleteअब न कोई फूल खिले मुझमें
ReplyDeleteन प्यास बुझे प्यासे की
मुझ जैसी जाने कितनी को
तूने खुद में उतारा है
मैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
क्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है....
बेहतरीन ख़याल अनु जी.
सादर,
निहार
वाह ! रिश्ते को एक अलग नज़र से देखने का यह अंदाज़ भी बहुत बढ़िया रहा.
ReplyDeleteसमंदर खारा भी तो इसी कारण हुआ है कि नदियाँ थोड़ी थोड़ी नमक लाती हैं अपने साथ ... और जब बादल बनके उड़ जाती हैं, तो शेष बस नमक ही रहता है समंदर के पास!! और सदियों से इसी नमक के बोझ ने उसे खारा बना दिया है .. क्या करे वो?? अपनी विशालता, शांत-चित्तता में सबकुछ स्वीकारा है उसने ... सब किसीका! :)
ReplyDelete(sorry thodi scientific philosophy ho gayi is comment mein :P )
Saadar
Madhuresh
मधुरेश भाई आपके "वैज्ञानिक दर्शन" को थोडा सा और आगे करते हुए ये कह दूं कि कण कण लवण समेटते हुए पराकाष्ठा यहाँ तक जा पहुंची की मृत सागर में गुरुत्वाकर्षण के नियम भी झूठे हो गए :)
Delete
ReplyDeleteकल 26/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
thanks a lot yashwant.
Deleteमेरा मन तो तेरे लिए बावरा है ,समंदर तू मुझे जान से प्यारा ।बहुत अच्छा अनु जी ...नदी और समंदर के रिश्ते के बहाने आपने बहुत कुछ लिख दिया
ReplyDeleteमेरा मन तो तेरे लिए बावरा है ,समंदर तू मुझे जान से प्यारा ।बहुत अच्छा अनु जी ...नदी और समंदर के रिश्ते के बहाने आपने बहुत कुछ लिख दिया
ReplyDeleteबेहद सुन्दर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteअरुन शर्मा
www.arunsblog.in
नदी हूँ मैं
नदिया के जैसी ही
चाहत मेरी है...
समंदर! तू कितना खारा है
फिर भी मुझे जान से प्यारा है....
सुन्दर समर्पण नदी का और सम्यक शब्दों का मुक्त प्रवाह
ReplyDeleteबावली ,मिलने को उतावली | यही तो प्रेम है और यही समर्पण |
ReplyDeleteवो गिरना तुंग शिखरों से
ReplyDeleteअज़ब का दौड़ मैदानी
फ़ना होना समंदर में
गज़ब का प्रेम हैरानी
ये गहरी झील की नावें
नदी का प्यार क्या जानें!
प्यार हो सच्चा.... तो समर्पण खुद-ब-खुद हो जाता है... ~ खट्टे-मीठे से इक़रार का इज़हार.. :-)
ReplyDelete~ <3
समय के समंदर! कहा तूने जो भी, सुना! पर न समझे
ReplyDeleteजवानी की नदी में था तेज़ पानी, ज़रा फिर से कहना......
इमली से खट्टे और अंगूर के मीठे नशे सा रूप .... क्या यही प्यार है ......?????
ReplyDeleteबहुत सुंदर मन के भाव ...
ReplyDeleteप्रभावित करती रचना .
तुझ में मिल कर
ReplyDeleteमैं भी खारी हो जाती
नदी,नदी न रहती
वो भी समंदर हो जाती..
मुझे मेरा अस्तित्व खोना भी गवारा है
तू मुझे जान से जो प्यारा है...
....बहुत खूब! सम्पूर्ण समर्पण की एक उत्क्रष्ट अभिव्यक्ति...
बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteतुझ में मिल कर
ReplyDeleteमैं भी खारी हो जाती
नदी,नदी न रहती
वो भी समंदर हो जाती..
वाह !म बहुत शानदार रचना , लाजवाब
अब न कोई फूल खिले मुझमें
ReplyDeleteन प्यास बुझे प्यासे की
मुझ जैसी जाने कितनी को
तूने खुद में उतारा है
मैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
क्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है... !!!
Speechless anu di...
समर्पण से आगे कुछ नहीं ....सुंदर भाव ...!!
ReplyDeleteनदी और सागर की यह अन्यतम परम कथा बहुत अच्छी लगी अनु जी ! सम्पूर्ण आत्मोत्सर्जन एवँ समर्पण का इससे बढ़िया उदाहरण और क्या होगा ! बहुत खूब !
ReplyDeleteहम खुद ही चुनते हैं अपने ओपशंस ..और दिल को तसल्ली दे लेते हैं ...हैं न .....:)
ReplyDeletepyar aisa hi hota hai...har hal may khush chahe khud ko kho diya tho bhi.........bahut bhaut sundar di...
ReplyDeleteमैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
ReplyDeleteक्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है...
बिल्कुल सच कहा आपने ... बेहतरीन भावों का संगम
समर्पण भी एक खूबसूरत भाव है ......सादर
ReplyDeletepunjabi me heer ranjhe ki story hai,
ReplyDeletejisme heer ranjhe se kehti hai
meri jaise lakh heer hongi tere liye, phir main kis ginti me aati hun.
yahi bta rahi hai aapki kavita sacha smarpan
मुझ जैसी जाने कितनी को
तूने खुद में उतारा है
मैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
क्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है...
Lovely lines. Bahut khubsurat likhti hain aap Anu:)
ReplyDeleteAwesome.
ReplyDeletebeautiful words enchanting the mind...u express well..GOD<3U
ReplyDeleteबहुत खूब..|
ReplyDeleteअब न कोई फूल खिले मुझमें
ReplyDeleteन प्यास बुझे प्यासे की
मुझ जैसी जाने कितनी को
तूने खुद में उतारा है
मैंने ये सच सहर्ष स्वीकारा है
क्यूँकि एक तू ही मुझे जान से प्यारा है... !!!
बहुत अच्छा लगा। समर्पण का भाव सर्वदा प्रशंसनीय होता है। धन्यवाद।
नदी ने समंदर के खारेपन का राज़ जान लिया है . कितनी नदी के आंसुओं को उसने खुद में छिपाया है !!
ReplyDeleteतुझ में मिल कर
ReplyDeleteमैं भी खारी हो जाती
नदी,नदी न रहती
वो भी समंदर हो जाती..
मुझे मेरा अस्तित्व खोना भी गवारा है
तू मुझे जान से जो प्यारा है...
लाजवाब रचना...बधाई.
नीरज
इतराती,इठलाती
ReplyDeleteमेरी हर मस्ती पर तू
रोक लगा देता है
ठहरा देता है मुझे...
पर मेरा मन तो तेरे लिए बावरा है
समंदर ! तू मुझे जान से प्यारा है...
समर्पण गीत.
ReplyDeleteसमर्पण ही तो जीवन है ...
ReplyDeleteआपकी चंद तुकबंदी वाली रचनाओं में से एक |
ReplyDeleteअच्छे भाव
सादर