इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Tuesday, July 31, 2012

मेरी पहली कहानी.....

ये मेरी पहली कहानी है इसलिए कमियां लाज़मी हैं......कृपया पढ़ें और बेबाक टिप्पणियां दें.

महामुक्ति
भटक रही थी वो रूह,उस भव्य शामियाने के ऊपर,जहाँ सभी के चेहरे गमज़दा थे और सबने उजले कपडे पहन रखे थे.एक शानदार मंच सजा था जिस पर उसकी एक बड़ी सी तस्वीर,और तस्वीर पर ताज़े गुलाबों की माला थी और उसके आगे दीपक जल रहा था .
अनायास हंस पड़ी ललिता की रूह.....जीते जी वो कभी एक फूल या गजरा न सजा पायी अपने बालों में.जाने कितने तीज-त्यौहार यूँ ही निकल गए,कोरे....बिना साज सिंगार किये.शायद ये सब उसे मौत के बाद ही नसीब होना था.
आज ललिता की आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ का आयोजन किया गया है,जिसमे उसके परिवार- जनों के अलावा साहित्य मण्डली के लोग भी शरीक हैं.सभी बारी बारी मंच पर आकर उसके गुणों का बखान कर रहे हैं और उसका असमय जाना  साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व  क्षति बता रहे हैं.
हैरान है वो अपनी ही उपलब्धियां सुन कर.जिसने सारी उम्र  नर्म स्वर में कहा गया एक वाक्य न सुना हो उसके लिए तो ये अजूबा ही है.उसकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े जाने वालों की होड सी लगी  है.....जाने कहाँ थे ये लोग जब वो जिंदा थी.हमारे समाज की यही तो खासियत है,ढकोसलों से ऊपर आज तक नहीं उठ पाया.अपने दुखों का सार्वजनिक प्रदर्शन करना आदमी को आत्मसंतोष देता है.या शायद कभी कभी किसी ग्लानि भाव से मुक्ति भी दिलाता है.

ललिता की रूह बेचैन हो गयी.....तन तजने के बाद भी भारीपन अब तक नहीं गया था....क्यूँ मुक्त नहीं हुई वो???? किसी किसी को शायद मौत के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती.जीते जी कुछ भी उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ...अपना पूरा जीवन उसने दूसरों के इशारों पर जिया.अब मौत के बाद तो उसे मुक्ति का अधिकार मिलना चाहिए था.

तभी मंच पर उसका पति मदन आया....ललिता का जी मिचलाने लगा....ज़िन्दा होती तो शायद दिल धड़कने भी लगता ज़ोरों से. मदन ने भी ललिता को सरस्वती का अवतार बता डाला.....उसके मुख से अपनी प्रसंशा सुन कर भी ललिता को घृणा हो आई...पति का दोगला व्यवहार उस सहृदया को नागवार गुज़रा,मगर जब जीवित होते हुए उसने कभी किसी बात का विरोध नहीं किया तो अब क्या करती.सिसक के रह गयी उसकी रूह....
ललिता जब ब्याह कर आई थी तो हर नवयौवना की तरह अपने आँचल में ढेरो ख्वाब टांक कर लायी थी......दहेज के साथ अरमानों की पोटलियां भी थी......और उसके पिता ने सौंप दिया उसको एक ऐसे पुरुष के हाथों जिसने उसका आँचल तार तार कर दिया....दहेज की पोटली तो सम्हाल ली गयी मगर अरमानों को कुचल कर फेक दिया गया.
ललिता एक मध्यमवर्गीय सुसंस्कृत परवार की बेटी थी.वो दो बहने थीं, जिन्हें शिक्षक माता-पिता ने बड़े स्नेह से पाला था.उनकी हर उपलब्धि पर माँ उन्हें एक पुस्तक उपहार में  दिया करतीं जो उनके लिए किसी स्वर्णाभूषण से कम न थीं.दोनों बहने सुन्दर सुघड़ और संस्कारी थीं.
और ससुराल में माहौल एकदम उलट.....यहाँ अखबार में चटपटी खबर  पढ़ने के सिवा किसी को उसने पढते नहीं देखा,और तो और उसके पठन-पाठन पर भी उन्हें ऐतराज़ होता,ताना मारते हुए कहते -माँ शारदा,पहले काम तो निपटा लो...आहत मन से वो जुट जाती अपने काम में.घर में ससुर और पति के सिवा कोई था नहीं सो ज्यादा काम भी नहीं रहता था.अशिक्षित होने भर से क्या आदमी को पशुवत व्यवहार करने का अधिकार मिल जाता है ? ऐसे प्रश्न ललिता के मन में अकसर उठते  रहते.....मगर किससे मांगती उत्तर ??
आरम्भ में वो अपने अपमान को गटक नहीं पाती थी और मदन से जिरह करती...मगर मदन उसे "कुतर्क न कर" कह कर चुप करा देता........जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला हिसाब था यहाँ. सो धीरे धीरे उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया...और खुद में मगन रहने लगी.मदन एक ऐसा पति था जो उसको न कभी हंसाता, रिझाता न प्रेम जताता.........बस इस्तेमाल करता....ललिता हांड-मांस की बनी गुडिया सी हो गयी थी.. .... वक्त बेवक्त गुस्सा करना और उसके काम में मीन मेख निकालना बाप बेटा के स्वभाव में शामिल था.....मगर जो भी तमाशा होता वो आमतौर पर घर की चारदीवारी के अंदर ही होता सो आस पड़ोस में उसकी इज्ज़त अभी बनी हुई थी.मध्यमवर्गीय लोग ही तो ख़याल करते हैं समाज का,पास-पड़ोस का....वरना निम्न और उच्चवर्गीय लोगों में कहाँ कोई लिहाज या पर्दा रहता हैं...... ललिता लोगों से मेलजोल कम ही रखती थी,फिर भी जाने कैसे वो शांत और संतुष्ट दिखाई पड़ती थी. शायद भगवान ने उसको तरस खाकर ये वरदान दिया हो....
स्नेह का अभाव और वक्त-बेवत के ताने उसको तोड़ रहे थे भीतर ही भीतर ,अकेले में वो अपने तार तार हुए मन को सीती रहती..और किसी तरह जीती रहती....कभी कभी सोचती, कौन जाने,इनके ऐसे व्यवहार की वजह सी ही शायद उसकी सास असमय दुनिया छोड़ गयीं हों ?? काश वो जीवित होतीं तो एक स्त्री के होने से उसको कुछ सहारा मिलता शायद....शायद उनका नारी मन उसकी पीड़ा को समझता.मगर जो चला गया उसको वापस तो लाया नहीं जा सकता....जीवन के पन्ने कभी पीछे पलटे जा सकते हैं भला??
ऐसे ही माहौल में ललिता गर्भवती हुई.उसको लगा शायद अब दिन फिर जायेंगे,पितृत्व बदलाव अवश्य लाएगा मदन में.मगर उसके हाथों की लकीरें इतनी अच्छी न थीं........लिंग जांच के बाद उसका गर्भ गिरवा दिया गया......और ऐसा ३ सालों में २ बार हुआ...उनका कहना था कि उन्हें एक और ललिता नहीं जाहिए...कितना बोझा ढोयेंगे हम आखिर,उसके ससुर ने बुदबुदाया था उस रोज. ललिता का आहत मन चीख पड़ा था...मगर नक्कारखाने में तूती की तरह उसकी आवाज़ भी दीवारों से टकरा कर गुम हो गयी......वो कहना चाहती थी मुझे भी नहीं चाहिए बेटा...नहीं चाहिए एक और मदन.मगर उसका चाहना न चाहना मायने कहाँ रखता था.....आखिर उसने एक बेटे को जन्म दिया.सूखी छाती निचोड़ कर ललिता बेटे को बड़ा करने लगी, इस आस में कि उसके अँधेरे जीवन में दिया बन टिमटिमायेगा उसका बेटा.वो अपना पूरा वक्त बेटे को देती,उसे अच्छी कहानियाँ  सुनाती, दुनियादारी की सीख देती, मगर वो अकसर उसके हाथ ही न आता.भाग कर अपने दादा या बाप के पास चला जाता और वे उसको ही खदेड़ देते कि बच्चे को क्या प्रवचन देती रहती हो...सन्यासी बनाना है क्या?
बबूल के बीज  से कभी आम का पेड़ उगा है क्या???? नीम से निम्बोली ही झरेगी,हरसिंगार नहीं....

 पूत के पाँव पालने में दिखने लगते हैं सो इस कपूत के लक्षण भी १०-१२ साल से ही दिखने लगे.माँ को वो अपने पाँव की जूती समझता...पढ़ना लिखना छोड़ बारहवीं के बाद से ही बाप दादा के धंधे में लग गया.अब तीन तीन मर्दों के बीच ललिता स्वयं को बेहद असहाय महसूस करती.....अपना दोष खोजती रहती मगर सिवा उसके नसीब के उसमें कुछ खोट न था.बेटी का दुःख उसके माता-पिता की मृत्यु का कारण भी बना.अब इस दुनिया में एक बहन के सिवा उसका अपना कहने को कोई न था. वो अकसर उसको ढाढस बंधाती,और प्रेरित करती लिखते रहने को..सबसे पहले ललिता ने एक छोटी सी कविता लिखी,जो उसके अपने मन के उद्गार थे.
आज मैं
तुमसे
अपना हक मांग रही हूँ..
इतने वर्षों
समर्पित रही... बिना किसी अपेक्षा के..
बिना किसी आशा के..
कभी कुछ माँगा नहीं
और तुमने
बिना मांगे
दिया भी नहीं...
अब जाकर
ना जाने क्यूँ
मेरा स्त्री मन
विद्रोही हो चला है
बेटी/बहिन/बहु/पत्नी/माँ
इन सभी अधिकारों को
तुम्हे सौंप कर
एक स्त्री होने का हक
मांगती हूँ तुमसे...
कहो
क्या मंज़ूर है ये सौदा तुम्हे???

कविता उसकी बहन को इतनी पसंद आई कि उसने एक प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजने की बात की.ललिता सरल स्वभाव की थी सो उसने अपने पति से इजाज़त मांगी.मगर मदन तो सरल नहीं था न...वो भड़क गया और चेतावनी दे डाली कि खबरदार जो रचना भेजी...बहुत उड़ रही हो...तुम्हारे पर क़तर दूंगा ..जाने क्या क्या अनर्गल बक डाला उसने.
मगर इस दफा ललिता की बहन ने उसने लिए एक उपनाम चुना "गौरी" और रचना भेज दी.ललिता को उस रचना के लिए ढेरों बधाई पत्र और मानदेय भी मिला,जो उसकी बहन के पते पर आया.अब तो ललिता के मानों सचमुच पंख निकल आये..वो अकसर अपना लिखा भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं में भेजती और प्रशंसा,मानदेय के साथ अभूतपूर्व संतुष्टि पाती...बरसों से सोयी उसके भीतर की कला और आत्मविश्वास अब जाग गया था.
एक बहुत बड़े प्रकाशक ने उसको उपन्यास लिखने का सुझाव दिया. रचनात्मकता की कोई कमी तो थी नहीं और उत्साह भी उबाल पर था.कुछ ही दिनो में उसने उपन्यास पूरा कर डाला और पुस्तक प्रकाशित होकर बाजार में भी आ गयी.ललिता ने एक बार फिर प्रयास किया कि मदन को बता कर विमोचन में जा सके मगर उसने साफ़ मना कर दिया.खूब लताड़ा भी ...साथ ही धमका भी दिया कि यहाँ अगर एक प्रति भी दिखी तो जला डालूँगा.ललिता कभी समझ नहीं पायी कि आखिर उसका गुनाह क्या था और उसकी इस प्रतिभा से मदन को क्या कष्ट था.शायद उसके अंदर की हीनभावना उससे ये सब करवा रही थी.ललिता सदा  मौन का कवच पहने रहती.और उसका मौन मुखर होता सिर्फ उसकी डायरी  के पन्नों पर....
ललिता का उपन्यास बहुत ज्यादा पसंद किया गया.प्रकाशक तो मानो बावला सा हो गया था.दूसरे उपन्यास के लिए उतावला हुआ जा रहा था...ललिता भी बहुत खुश थी मगर परिवार का असहयोग उसको खाए जा रहा था.मन बीमार हो तो तन भी कब तक साथ देता...ललिता अकसर बीमार रहने लगी.और जब भी वो अस्वस्थ महसूस करती या असमय लेट जाती तो पति या ससुर ताना मार देते कि सारी ऊर्जा पन्ने काले करने में क्यूँ गवां देती हो! पति चीखता,एक घर का काम ही तो करने के लायक थीं वो नहीं कर सकती तो तुम्हें पालें  क्यूँ???? ललिता को एहसास हो चला था कि इनके लिए मेरा कोई मोल नहीं.
सो एक दिन उसने सम्बंधित संस्थानों से संपर्क करके अपने नेत्र दान किये और अपनी देह भी मेडिकल कॉलेज को दान कर दी.उसको बड़ा संतोष मिला, संभवतः ऐसा करने से उसके आहत स्वाभिमान को थोड़ा सुकून मिला होगा . शायद मौत भी उसके इसी कदम का इन्तेज़ार कर रही थी.एक सुबह उसने इस नर्क से विदाई ले ली.......मुक्त हो ली वो पल-पल की घुटन से.
सुबह आठ बजे तक ललिता उठी नहीं तो पति ,ससुर, बेटा सभी चीखने लगे,मगर अब ललिता किसी की चीख पुकार सुनने वाली न थी....वो बहुत दूर चली गयी थी इन निर्मोहियों से....
अखबारों के माध्यम से ललिता का बहुत नाम हो गया था,सो खबर शहर भर में आग की तरह फ़ैल गयी.लोगों का तांता लग गया मदन के घर.अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगी.
तभी ललिता के तकिये के नीचे से एक कागज का पुर्जा निकला .मदन ने पढ़ा तो उसे पता लगा कि उसकी स्वाभिमानी पत्नि ने अपने नेत्र के साथ देह भी दान कर दी है.मुखाग्नि का अधिकार भी छीन लिया था उसने.मदन ने दो पल को  सोचा फिर  कागज फाड़ के फेंक दिया और शवयात्रा निकालने की तैयारी में जुट गया.मौत के बाद भी वो ललिता को मनमर्जी करने कैसे दे सकता था.
पूरे साजो श्रृंगार  के साथ ललिता की शवयात्रा निकली,और उसकी सुन्दर सी मासूम काया पंचतत्व में विलीन हो गयी.....जाने कितने ग़मगीन चेहरे उसकी चिता को घेरे थे.मौत के बाद ही सही उसको कुछ सम्मान तो मिला.

आज उसकी तेरहवीं है...और उसकी रूह देख रही है अपने परिजनों को,अपने लिए दुखी होते.ललिता की रूह परेशान सी यहाँ वहाँ भटकती रही......पूरे कर्मकांड किये गए उसकी आत्मा की शान्ति के लिए.मदन और उसका बेटा हरिद्वार हो आये ,उसकी अस्थियाँ गंगा जी में विसर्जित करने.पूजापाठ,प्रार्थना सभा क्या नहीं हुआ. मगर ललिता की रूह को मुक्ति नहीं मिली....भटकती फिर रही थी वो....न जीते जी चैन था न मर कर चैन पाया उस बेचारी ने.
उसकी मौत को आज पूरा एक माह हो गया था.उसने देखा मदन सुबह सुबह उठ कर नहा  धोकर कहीं निकल गया. ललिता की रूह उसका पीछा करने लगी...
मदन चलता चलता शहर के बाहर एक पुराने मंदिर की ड्योढ़ी पर बैठ गया.उसके हाथ में ललिता का लिखा हुआ उपन्यास था "महामुक्ति". वो अपलक उसे देखता रहा फिर पढ़ने लगा वह आखरी पन्ना जहाँ ललिता ने चंद पंक्तियों में अपने उपन्यास का सार लिखा था..मदन के बुदबुदाते स्वर को सुन सकती थी ललिता की रूह.....फिर रूह तो मन की आवाज़ भी सुन लेती हैं.
हे प्रभु!
मुक्ति दो मुझे
जीवन की आपधापी से
बावला कर दो मुझे
बिसरा दूँ सबको...
सूझे ना कुछ मुझे..
सिवा तेरे..

डाल दो बेडियाँ
मेरे पांव में..
कुछ अवरोध  लगे
इस  द्रुतगामी जीवन पर..
और दे दो मुझे तुम पंख...
कि मैं उड़ कर
पहुँच सकूँ तुम तक...
शांत करो ये अनबुझ क्षुधा
ये लालसा,मोह माया..

हे प्रभु!
मन चैतन्य कर दो..
मुझे अपने होने का 
बोध करा दो..
मुझे मुक्त करा दो.... 

मदन की आँखों से आंसू झरने लगे...पुस्तक के भीतर मुँह छुपाकर वो रोने लगा....
हैरान थी ललिता की रूह......मदन की आँख में आंसू !! वो भी ललिता के लिए ? मदन बहुत देर तक सिसकियाँ लेता रहा और फिर किताब को सीने से लगाये चला गया.....
ललिता की रूह को एक अजीब सा हल्कापन महसूस हुआ...उसको लगा उसे कोई खींच रहा है ऊपर......
गुरुत्वाकर्षण से परे वो चली जा रही थी ऊपर...बहुत
ऊपर......पा गयी थी वो "महामुक्ति" ..आज देह के साथ उसकी आत्मा भी मुक्त हो गयी थी.
ढेरों कर्म-कांड,हवन कुंड की आहुतियाँ और गंगा जी  का पानी उसकी आत्मा को मुक्त न कर सके थे, मगर मदन की आँख से गिरी दो बूंदों ने ललिता की आत्मा को शांत कर दिया...उसकी भटकन को राह दे दी.उसका जीवन भले व्यर्थ चला गया हो किन्तु उसकी मौत सार्थक हुई.
-अनुलता

Sunday, July 29, 2012

निम्बोली



याद  मुझे वो सावन आया

आई  याद वो पुरवाई..

याद मुझे है अब भी-
 

गाँव की भीगी  अमराई

उस बूढ़े पेड़ की कोटर में 

चिड़िया का बच्चा...

और याद मुझे वो कोयल आई.......

नंगे पाँव- 

वो लुका छुपी का खेल 

दरख्तों के पीछे

चोरी-चोरी,तेरे-मेरे

सपनो का मेल...

याद  मुझे है
 

बचपन से यौवन तक

पगडण्डी पर दौड़ना,

आषाढ़ से सावन तक

संग तेरा न छोडना...

याद मुझे है...

कच्ची पक्की अम्बियाँ...

तेरी झूठी सच्ची बतियाँ...

वो शहर को तेरा जाना..

लौट के फिर न आना....

याद मुझे है...

तेरा मुझको वो खिजाना

फिर मेरा तुझे सताना....

तेरा जामुन के धोखे में  

मुझे निम्बोली खिलाना.... 

सब याद है मुझे........
 

अब तक जुबां पर वो कड़वा   स्वाद जो रक्खा है......

-अनु
 (aug 11/2011)

Friday, July 27, 2012

my various short stories published in dainik bhaskar DB star

1-Found a rose in my diary...
flower was now dry,lost its smell and colour...
but the thorn hurts even more.




2-Cutting onions,reading sad stories,
watching tragic movies,pretending stomach ache....
thats how i hide my tears these days.




3-I travelled and wandered all my life...
every day,every night,
waiting sun to be brighter and to see a shooting star....
then realized that 
my eyes were closed throughout the journey.








4-She was crying...she cried the whole night..
the morning dew on the green grass was salty.




And these are awaiting publication...
:-)


5-I wanted soft teddy bear,heart shaped pillow,bunch of red balloons......He said,why don't you grow up? And i grew up and grew old without his love.

6-As sky holding moon in its arm,he held me lightly......and i saw stars twinkling,clouds whispering and moon blushing.


7- I was wandering in search of happiness..in search of colour...then found you...and found a rainbow too.
Anu

Tuesday, July 24, 2012

मनमोहना

भास्कर  भूमि में प्रकाशित http://bhaskarbhumi.com/epaper/index.php?d=2012-07-26&id=8&city=Rajnandgaon#

प्यार  जितना ज़रूरी है ,इज़हार भी उतना ही ज़रूरी है......अगर कह न सके तो प्यार करना ही क्यूँ ???? कहे बिना समझने का तकल्लुफ मोहब्बत में बिलावजह घुसपैठ किये बैठा है.......
आँखों की भाषा समझें.........मौन को पढ़ें.........साँसों की खुशबू से पहचानें..........
अरे मगर क्यूँ ???? कहने में क्या हर्ज है भला??? कह के तो देखिये.......
मोहब्बत दुगुनी हो जायेगी......चाहे सीधे कहें ,घुमा कर कहें,लिख कर कहें या गा कर कहें....कहना ज़रूरी है.......सो अपनी बात का खुद पालन करते हुए हमने भी कह डाला......पूरी गज़ल ही कह दी......उसने पढ़ ली :-) अब आप भी पढ़ें...

तेरी आँखों में चेहरा देख लिया 
अब तुम ही हो मेरे दर्पण पिया.

तेरी ही खुशबु से महके रहे
तुम ही तो मेरे चन्दन पिया.

तुम संग खिलूँ,हो जाऊं हरी
तुम ही तो मेरे सावन पिया.

तुमसे ही जीवन ये गुलज़ार है
तुम ही तो मेरे मधुबन पिया.

मेरे तुम हुए, मैं हुई बावरी
तुमको दिया मैंने तनमन पिया.

तेरे प्रेम में, मैं तो मीरा हुई
तुम ही मेरे मनमोहन पिया.
-अनु


Saturday, July 21, 2012

मौत

भास्कर भूमि में प्रकशित २३/७/१२ http://bhaskarbhumi.com/epaper/index.php?d=2012-07-23&id=8&city=Rajnandgaon

मौत कितनी आसान होती
अगर हम जिस्म के साथ
दफ़न कर पाते
यादों को भी....
......................................................

मौत कुदरत का तोहफा है
ये मिटा देती है
सभी दर्द...
उसके, जो मरा है...
......................................................

मौत अकसर भ्रमित होती है.
आती है उनके पास
जो जीना चाहते हैं...
और उन्हें पहचानती नहीं
जो जी रहे हैं मुर्दों की तरह.
.................................................

मौत जब किसी
पाक रूह को ले जाती है...
तब ज़रूर उसे
जी कर देखती होगी....
...................................................

मौत से मुझे
डर नहीं लगता
उसे लगता है डर
मेरी मौत से...
...................................................

मौत  का दुःख
अकसर एक सा नहीं होता...
कौन मरा ?
कैसे मरा?
कब मरा?
पहले सब हिसाब किया जाता है....
.............................................................................
-अनु


Wednesday, July 18, 2012

सपनों का सौदागर


मेरी यह रचना दैनिक भास्कर-मधुरिमा में प्रकाशित की गयी हैं.21/12/2011

गुलाबी सर्दी की दोपहर को
आँगन में बैठी
 
ऊँघ रही थी..
दरवाज़े पर आहट हुई..
देखा कोई लंबी दाढ़ी वाला
...
बूढा सा राहगीर...
कहने लगा सपने लाया हूँ...
लोगी क्या
??
मुझे हैरानी हुई..
सपनों का सौदागर !!!
उत्सुकतावश पूछ बैठी
कहो क्या मोल है
?
मुस्कुरा कर वो बोला
अनमोल सपनों का भला क्या मोल !!!

मुफ्त ही बाँट रहा हूँ.
मैंने  कुछ सकुचा के पूछा..
सुखद से सुखद स्वप्न भी मुफ्त
???
उसने जवाब दिया  
हाँ....हर स्वप्न मुफ्त
,
क्यूँकि किसी के भी  
पूरा होने का कोई बंधन नहीं..

कोई शर्त नहीं..
फिर उनका क्या मोल ??
जो चाहे देखो.....

-अनु 

Sunday, July 15, 2012

~~~~~~~~~ टैटू ~~~~~~~~


कितना अच्छा  किया था जो उस दिन मैंने अपने हाथ में तुम्हारी जगह अपने  ही नाम का टैटू गुदवा लिया था.....तुम चाहते थे मैं तुम्हारा नाम लिखवाऊं....और कायदा  भी वही है न.......मगर मैं भी तो अजीब हूँ ही......तुमने कहा मुझे पता है तुम क्या लिखवाओगी..मैंने पूछा अच्छा बताओ तो???? तुमने प्यार भरी आवाज़ में मुस्कुरा कर कहा,नहीं बताऊंगा...वो  जो मेरे दिल में है......बस मैंने भी अपना ही नाम लिखवा लिया....कि मैं ही तो हूँ तुम्हारे दिल में :-) [तुम्हारी वो सूरत अब भी याद है मुझे,तुम्हारी उस सूरत का टैटू मेरे ज़हन में बन गया था उस रोज.. ]
अच्छा सोचो,उस रोज गर तुम्हारा नाम गुदवा लेती तो आज तुम्हारे न होने पर वो नाम मैं कहाँ छुपाती.......तुम्हारे दिए हज़ारों ज़ख्मों की तरह उसको हटाने को क्या एक और ज़ख्म बनाती.......??????
यूँ भी कितनी चीज़ें हैं जो तुम्हारे न होने का एहसास कराती हैं.....या तुम कभी थे इसकी याद दिलाती हैं.....जब मोहब्बत नहीं तो मोहब्बत की ये निशानियाँ किस काम की......
सच्ची , तुम तो बेवफाई में अव्वल निकले थे.....मुझे यूँ निकाला अपनी ज़िन्दगी से जैसे अपनी मूंछ के सफ़ेद बाल उखाड फेंकते थे.....वो बाल तो फिर उग आते थे न वहीँ....उतने ही सफ़ेद.....मगर  सुनो...मैं नहीं वापस आने वाली......सच कहूँ तो तुमसे दूर होकर लगा कि तुम बिन जीना इतना भी मुश्किल नहीं है......तुम्हारी शुक्रगुजार हूँ कि तुमने मुझे मजबूत बना दिया.....नहीं जानती कि क्या करूंगी अपनी इस बाकी ज़िन्दगी का........शायद तुम्हारी यादों को भुलाते भुलाते ही कट जाए....

आज मैंने
एक वादा किया है
अपनी आँखों से..
एक वादा,
जो निभाना है मुझे
जब तलक बंधन है मेरा
मेरी साँसों से...
एक वादा,
कि कभी तुझे
रोने ना दूँगी.....
गर चोट लगेगी भीतर ..
तुझ पे जाहिर ना होने दूँगी ..
लाख सिसकता रहे दिल मेरा
कंपकपाते रहें लब..
मगर ऐ आँख!
मैं तुझको कभी
नम न होने दूँगी...

-अनु 


Friday, July 13, 2012

ख्वाब नहीं ख्वाहिश है......

क्यूँ आसमां में
एक ही चाँद ?
होते कई काश...
एक तेरा,
एक मेरा.....
जितने तारे,
उतने चाँद !!
टिमटिमाते तारे,
मुस्काते चाँद.
कभी कोई चाँद पूरा
कोई अधूरा...
तीजा चौथ का
चौथा ईद का...
कोई चाँद तुम सा,
कोई तुम कहो
मुझ सा....
तकते रहें हम
रात भर,
खोजें चाँद 
अपना अपना.
कभी  धरती पर उतरे
कोई चाँद
एक तुम मेरे बालों में खोंसो...
एक मैं छुपा लूँ मुट्ठी में..
गर बिखरे होते चाँद
यहाँ वहाँ ...
जब चलते हम-तुम
संग संग
तब पीछे चलता
तारों का नहीं,
चाँद का कारवां.....
काश....
आसमां में होते 
ढेरों चाँद...
एक  तेरा 
एक मेरा
ये ख्वाब नहीं...
ख्वाहिश है मेरी.


-अनु

Tuesday, July 10, 2012

यकीन

बड़ा आसान है मेरे लिए यकीं कर लेना....जो कहीं है उस पर और जो नहीं है उस पर भी...मुझे यकीन  है हर एहसास पर जो किसी के दिल में पलता है..यकीन  है मुस्कराहट पर जो होंठों पर खेलती है...यकीन है धडकन पर जो जिंदा रखती है मुझे/तुम्हें......
जीना बड़ा आसान हो जाता है गर मन में विश्वास हो....आस्था हो.

मुझे यकीन है हाथों की लकीरों पर
बरगद तले बैठे बूढ़े फकीरों पर....
         -जो कहते हैं कि सब ठीक होगा एक दिन.

मुझे यकीन है हर अच्छे -बुरे इंसान पर 
जिसे देखा नहीं उस भगवान पर....
         -जो मुझे बनने नहीं देता बुरा कभी.

मुझे यकीन है जगमगाते तारों पर 
जितने हैं आस्मां में,उन सारों पर....
          -कि कोई एक टूटेगा ज़रूर और मुराद पूरी होगी मेरी.

मुझे यकीन है तुम्हारे इरादों पर 
अब तक किये सभी वादों पर....
           -क्यूंकि उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी है.

मुझे यकीन है प्यार पर 
खुदा के बनाए इस संसार पर 
            -क्यूंकि यकीन ही तो हिम्मत और अवसर देता है प्यार के...
 -अनु 

नए पुराने मौसम

मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही ! मोह...