तुम्हारे साथ बिताया हर एक लम्हा मैंने सजा रखा है अपनी यादों के नन्हे नन्हे कमरों में......
हर कमरे की खिड़की यदाकदा खोल दिया करती हूँ....यादों को धूप दिखाती हूँ ताकि कहीं फफूंद ना पड़ जाये......कुछ देर को जी लेतीं हूँ वो लम्हा फिर से.....और बंद कर देतीं हूँ वो कमरा दोबारा......
बड़ी साज सम्हाल चाहिए होती है यादों को संजोये रखने के लिए.....वरना वक्त की धूल परत दर परत चढती चली जाती है और धुंधला कर देती है यादों को.......
आज मैंने जिस याद का कमरा खोला वो महक रहा था एक भीनी भीनी खुशबु से.......तुम्हारी खुशबु से.......और अन्दर चारों ओर चांदनी फैली थी जो जाने कैसे कैद हो गयीं थीं यादों के साथ.......
उस रात,दिन भर की बारिश के बाद चाँद निकला था.........बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी उसे ......बार बार बादलों की शैतान टोली उसे धकिया रही थी धूसर गुबार के पीछे.....
नदी का किनारा था और तुम्हारा साथ...................जंगल की गीली खुशबु से मदहोश थे हम दोनों.....
नदी में चाँद का अक्स कैसा प्यारा दिखता था.......
लहरों के साथ चाँद भी मानों नाच रहा हो........मैं हाथ से पानी को जोर से हिलाती और कुछ देर को गुम हो जाता चाँद .................
तुम कहते देखो बहा दिया तुमने चाँद को नदी में..........मेरे चाँद तो तुम हो,मैंने इठला कर कहा था...
क्या रात थी वो.................
किसी पागल चित्रकार की मास्टरपीस पेंटिंग की तरह.......एक दम परफेक्ट........
तुम मैं और वो चाँद
सब थे पागल
सब थे बहके..........
चाँद और बादलों के गुच्छे
उलझ पड़ते बार बार
मेरी तुम्हारी तरह......
विस्तृत आकाश
समेटे चाँद को
जैसे तुम्हारे आगोश में
सिमटी थी मैं.....
वो रात गुजर गयी......
बादल उड़ गए...
चाँद जाने कहाँ गया???
और तुम भी तो!!!!
-अनु
हर कमरे की खिड़की यदाकदा खोल दिया करती हूँ....यादों को धूप दिखाती हूँ ताकि कहीं फफूंद ना पड़ जाये......कुछ देर को जी लेतीं हूँ वो लम्हा फिर से.....और बंद कर देतीं हूँ वो कमरा दोबारा......
बड़ी साज सम्हाल चाहिए होती है यादों को संजोये रखने के लिए.....वरना वक्त की धूल परत दर परत चढती चली जाती है और धुंधला कर देती है यादों को.......
आज मैंने जिस याद का कमरा खोला वो महक रहा था एक भीनी भीनी खुशबु से.......तुम्हारी खुशबु से.......और अन्दर चारों ओर चांदनी फैली थी जो जाने कैसे कैद हो गयीं थीं यादों के साथ.......
उस रात,दिन भर की बारिश के बाद चाँद निकला था.........बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी उसे ......बार बार बादलों की शैतान टोली उसे धकिया रही थी धूसर गुबार के पीछे.....
नदी का किनारा था और तुम्हारा साथ...................जंगल की गीली खुशबु से मदहोश थे हम दोनों.....
नदी में चाँद का अक्स कैसा प्यारा दिखता था.......
लहरों के साथ चाँद भी मानों नाच रहा हो........मैं हाथ से पानी को जोर से हिलाती और कुछ देर को गुम हो जाता चाँद .................
तुम कहते देखो बहा दिया तुमने चाँद को नदी में..........मेरे चाँद तो तुम हो,मैंने इठला कर कहा था...
क्या रात थी वो.................
किसी पागल चित्रकार की मास्टरपीस पेंटिंग की तरह.......एक दम परफेक्ट........
तुम मैं और वो चाँद
सब थे पागल
सब थे बहके..........
चाँद और बादलों के गुच्छे
उलझ पड़ते बार बार
मेरी तुम्हारी तरह......
विस्तृत आकाश
समेटे चाँद को
जैसे तुम्हारे आगोश में
सिमटी थी मैं.....
वो रात गुजर गयी......
बादल उड़ गए...
चाँद जाने कहाँ गया???
और तुम भी तो!!!!
-अनु