जाने क्या सोच कर चली आई थी गाँव ...और यहीं की होकर रह गयी...शहर की समस्त सुविधाओं को छोड इस छोटे से मकान में रहना बहुत भला लगा..ये घर कब से खड़ा है इस सुदूर सुन्दर पहाड़ी पर...अकेला...
मेरे बाबा का जन्म हुआ था इस घर में...हम जब भी गाँव जाते पिताजी वहाँ हमें अवश्य ले जाते...पहाड़ी चढ़ते हम कभी थकते नहीं थे..किवाड की सांकल खुलते ही बाबा भी चहक उठते थे...
कितना कलपा होगा उनका मन,अपने घर अपनी मिट्टी को छोड़ते हुए...जब आखरी बार उन्हें गाँव की ज़मीन बेचनी पड़ी तब वे मुट्ठी भर मिट्टी ले आये थे अपने साथ.....और जब तब चोरी-चोरी उसकी खुशबु उसका स्पर्श महसूस करते रहे....
तब से सोचा करती थी कि जीवन के किसी पड़ाव पर एकाकी महसूस करुँगी तो यहाँ अपने पैतृक घर में चली आउंगी...जिसकी चौखट पर आज भी दादाजी के हाथ से लिखी मेरे बाबा की जन्म तिथि मुझे यादों के उपवन में ले जाती है...
जानती हूँ कि यहाँ मैं खुद को कभी अकेला नहीं पाऊँगी ..
अकेली हूँ भी कहाँ....बुजुर्गों की याद ,उनके आशीर्वाद की भीड़ मुझे घेरे रहती है...
शहर की भीड़ में जो अकेलापन था वो अब नहीं....
आखिर कब तक बनावटी फूलों की महक से जी बहलाती...
-अनु
मेरे बाबा का जन्म हुआ था इस घर में...हम जब भी गाँव जाते पिताजी वहाँ हमें अवश्य ले जाते...पहाड़ी चढ़ते हम कभी थकते नहीं थे..किवाड की सांकल खुलते ही बाबा भी चहक उठते थे...
कितना कलपा होगा उनका मन,अपने घर अपनी मिट्टी को छोड़ते हुए...जब आखरी बार उन्हें गाँव की ज़मीन बेचनी पड़ी तब वे मुट्ठी भर मिट्टी ले आये थे अपने साथ.....और जब तब चोरी-चोरी उसकी खुशबु उसका स्पर्श महसूस करते रहे....
तब से सोचा करती थी कि जीवन के किसी पड़ाव पर एकाकी महसूस करुँगी तो यहाँ अपने पैतृक घर में चली आउंगी...जिसकी चौखट पर आज भी दादाजी के हाथ से लिखी मेरे बाबा की जन्म तिथि मुझे यादों के उपवन में ले जाती है...
जानती हूँ कि यहाँ मैं खुद को कभी अकेला नहीं पाऊँगी ..
अकेली हूँ भी कहाँ....बुजुर्गों की याद ,उनके आशीर्वाद की भीड़ मुझे घेरे रहती है...
शहर की भीड़ में जो अकेलापन था वो अब नहीं....
आखिर कब तक बनावटी फूलों की महक से जी बहलाती...
-अनु
अपनी जड़ों में लौट के आना ही तो जीवन का सबसे सुखी पल है ...
ReplyDeleteखूबसूरत अहसास ,खूबसूरत मन !
ReplyDeleteब्लॉग जगत में स्वागत है !
शुभकामनाएँ!
खुश और स्वस्थ रहें !
sundar bhav
ReplyDeleteब्लॉग जगत में स्वागत है !
ReplyDeleteएक मधुर याद.....काश हम समय को पकड़ पाते !
ReplyDeleteमैंने तो गाँव कभी जाना ही नहीं क्या होता है ॥पर जब लोगों को पढ़ती हूँ तो लगता है कि उसकी मिट्टी की खूशबू मदहोश कर देती होगी ...
ReplyDeleteआपका बहुत शुक्रिया यशवंत...
ReplyDeleteअपनी मिट्टी की खुशबू ... अपनापन की खुशबू... वाकई इस कृत्रिमता में धुंधलाता जा रहा है..
ReplyDeleteबहुत सुकून है आपकी इन पंक्तियों में...
ReplyDeleteसादर।
अनुजी सुन्दर कोमल अहसासों की महक थी आपकी रचना में ....बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteअनुजी सुन्दर कोमल अहसासों की महक थी आपकी रचना में ....बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteअपनी मिट्टी की खुशबू..यादों के पिटारे...सच में मन पकडना चाहता है एक बार फ़िर से...बहुत संवेदनशील प्रस्तुति..
ReplyDeleteजड़ों को तलाशती मार्मिक रचना.. बहुत खूब !!
ReplyDeletemujhe bhi bahut accha lgta hai ...bahut acchi prastuti anu jee.
ReplyDeleteहम अपनी जड़ों से सदा ही जुड़े रहते ....
ReplyDelete.वापस लौट सकें या न भी लौट सकें.......
तब भी मन के हर कोने में बसी रहती है उनकी यादें ..
आप का लेखन मन को बाँध लेता है
अच्छा लगता है आपको पढ़ना .......यूँ ही लिखती रहें ..बधाई
सच है ..बनावटी फूलों की खुशबू मन नहीं बहलाती ....बुजुर्गों के आशीर्वाद की भीड़ आपको घेरे रहती है ..इस बात ने मन मोह लिया
ReplyDeleteजाने क्यूँ आपका लिखा बहुत अपना सा लगता है
ReplyDeleteआज फिर बरसात हुई मद्धम सी ,
ReplyDeleteमेरे गाँव से सोंधी सी महक आती है |
सादर
-आकाश