सदियों से कभी
सुध ली ना उसने....
फिर आदत सी हो गयी
उसके बिना जीने की ,
बिना किसी शिकवे शिकायत के.........
अब उम्र के
इस आखरी पड़ाव पर...
जाने क्यों
हर आहट पर
निगाह चली जाती है
उस बंद किवाड पर.
हैरान है
खुद पर ..
अपनी इस सोच पर-
कि जिसके बगैर
चलते रहे
यूँ तनहा
सारी उम्र..
बिना जिसके सहारे के
गुज़ार ली
ये पहाड़ सी जिंदगी...
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
उसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???
-अनु
११/११/२०११
फिर आदत सी हो गयी
उसके बिना जीने की ,
बिना किसी शिकवे शिकायत के.........
अब उम्र के
इस आखरी पड़ाव पर...
जाने क्यों
हर आहट पर
निगाह चली जाती है
उस बंद किवाड पर.
हैरान है
खुद पर ..
अपनी इस सोच पर-
कि जिसके बगैर
चलते रहे
यूँ तनहा
सारी उम्र..
बिना जिसके सहारे के
गुज़ार ली
ये पहाड़ सी जिंदगी...
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
उसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???
-अनु
११/११/२०११
very touching nd reality based aisa hi hota hai jane ke pehle ik bar milne ki ichcha jarur hoti hai.
ReplyDeleteक्यूँकि तब शरीर में और मन में शक्ति थी...शक्तिहीन शरीर का मन भी कमजोर है...शायद इसलिए|
ReplyDeleteहूँ ...यही बात है....रागी मन एक बार बुझने से पहले जी भर के जल जाना चाहता है।
Delete*ऊढ़ा हो जाती अगर, दैहिक सुख को चाह ।
ReplyDeleteइन बच्चों की परवरिश, करता के परवाह ।
करता के परवाह, उड़ाती मैं गुलछर्रे ।
पर बच्चों की चाह, चली ना तेरे ढर्रे ।
कर पौरुष नि:शेष, लौट आया क्यूँ बूढ़ा ।
फिर से देता क्लेश, हुई मैं क्यूँ न ऊढ़ा ।।
* अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष के पास चली जाने वाली व्याहता ।
बहुत शुक्रिया रविकर जी आपकी अनमोल टिप्पणी के लिए...
Deleteअगर ये सोच कर पढ़ें कि माँ-बाप इन्तज़ार कर रहे हैं बेटे का जो उन्हें छोड़ अपनी जिंदगी में मगन रहा....
सादर.
संवेदनशील रचना .... इस यात्रा में शायद क्षमा कर देने का भाव हो ...
ReplyDeletesoulful as always
ReplyDeleteजिसके बगैर
ReplyDeleteचलते रहे
यूँ तनहा
सारी उम्र..
बिना जिसके सहारे के
गुज़ार ली
ये पहाड़ सी जिंदगी...
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
उसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???
ज़रूरतें ही सिमट जाती हैं तब तक...!
touchy thoughtful poem
ReplyDeleteकोई अपना जो छोड़ जाए अंतिम क्षणों में भी मिल लेने की आस होती है... चाहे वो जिस भी रिश्ते में हो. मार्मिक रचना, बधाई.
ReplyDeleteइंतज़ार ... कुछ परम्परायें भी कमज़ोरी बन जाती हैं। युगादि की शुभकामनायें!
ReplyDeleteमुझे अपनी डायरी का पता दे दो,चुरा लूँगा तुम्हारे एहसास सारे !
ReplyDeleteसंवेदनशील कविता !
जब तक जोश रहता है,अपने बूते ही दुनिया को जीत लेने के भ्रम में जीता है आदमी। जब तक होश आता है,दुनिया जीतकर भी हारा महसूस करता है आदमी।
ReplyDeleteभावों की जादूगरी मुखर हो उठी है . भावों की जादूगरी मुखर हो उठी है .
ReplyDeleteबहुत खूब भावों को प्रकट किया है अपने !
ReplyDeletevery nice poem .... thanks for visiting ... :)
ReplyDeleteumda shbd rachna
ReplyDeleteमन को छूती हुई सुन्दर भावात्मक रचना..
ReplyDeleteअब इस अंतिम यात्रा के लिए
ReplyDeleteउसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???... बांधो तो सब लाजमी है .... मिले न मिले कौन देखता है , तर्पण हो न हो - मुक्त तो हुए ही
भाव प्रबलता चरम पर है .. माँ की किसी कोने से उठी आवाज़ , किस तरह शब्दों में ढल गई . अति सुँदर .
ReplyDeleteमाँ को मन पढ़ा जाय
ReplyDeleteउफ़ ! हिला कर रख दिया .
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना .
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
ReplyDeleteउसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???
....बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...अंतस को झकझोर दिया..
मन को छु गयी आपकी यह कविता
ReplyDeleteसादर
भावमय करते शब्दों का संगम .. उत्कृष्ट प्रस्तुति ।
ReplyDeleteगहरे भाव .
ReplyDeleteआपकी रचना भावुक कर देती है. सुंदर कविता.
ReplyDeleteआओ चलो तोड़ें इस बंधन को भी। वाकई ये व्यर्थ हैं।
ReplyDeleteशुक्रिया यशवंत.
ReplyDeleteअन्तःस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteसादर।
जुबाँ खामोश है ,आँखों को अब भी होश है ....??
ReplyDeleteगहरे अहसास !
शुभकामनाएँ!
"आखिर क्यूँ" ..... "आखिर क्यूँ" ये दो शब्द हमारी अंतरात्मा को झिंझोड़ के रख देते हैं... और इन उन्सुल्झे जवाबों के साथ ही उम्र ढल जाती है... फिर भी एक आस जिसके सहारे हम रहते हैं.... उसका अहसास रह जाता है...
ReplyDeleteबहुर सुन्दर रचना ...
नाजुक से भाव भरे गहन अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteसुन्दर:-)
अब इस अंतिम यात्रा के लिए
ReplyDeleteउसका कांधा
इतना
लाज़मी क्यूँ है???
जीने के लिए नहीं...
तो मरने को सहारा क्यूँ???
Osum! behad behad khoobsurat Panktiyan! Badhai kabule1
इंसान लाख अपने को झुठलाता रहे ...लेकिन आखरी पलों में ...सच उजागर हो ही जाता है .....इंतज़ार तब भी था ...अब भी है ....बस आस का अंतिम छोर है ....! ...खुद को और झुटलाया नहीं जा सकता ....
ReplyDeleteअच्छी रचना |
ReplyDeleteसादर
-आकाश