इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Saturday, March 24, 2012

दरख़्त


एक रिश्ता  है..
मानों फैला हुआ दरख़्त.
दूर दूर तक पसरी शाखायें.
कितना  सुकून था कभी
उसके साये तले जीने में............
मगर अब बीमार हो गया वो,
पत्ते बेजान..
न फूल न फल
सिर्फ  कांटे..
अविश्वास का दीमक
खा रहा है जड़ों को....
उखाड फेंक दिया जाये क्या???


अब एक पेड़ तो काट भी दूँ...
मगर उसकी जड़ों से जुड गयीं हैं
बरस-दर-बरस
कई और छोटे बड़े,करीबी पेड़-पौधों की जड़ें..
जैसे  कई रिश्ते जुड़ते चले जाते हैं
किसी एक रिश्ते के साथ..
जंज़ीर की कड़ियों की  तरह..
अब  एक साथ कितनी जड़ें खोदूं...
अपने साथ किस किस को घाव दूँ???


सोचती हूँ इंतज़ार करूँ....


सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
जाने कब 
शायद कोई ऐसा मौसम आये 
जो इस सूखे दरख़्त पर भी 
फल-फूल खिलाए....


-अनु 


33 comments:

  1. मनके भाव सहेजे हुए ..एक एक शब्द....सार्थक सच कहाँ है संभव ? उन
    जड़ों को खोदना

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  2. सच है एक रिश्ते से कई रिश्ते जुड़ जाते है,जंज़ीर की कड़ियों की तरह..उसे फलते फूलते ही देखना अच्छा लगता है..बहुत सुन्दर भाव है अनु..बधाई

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  3. sukhe darakht par bhi phul khilenge---------bahut hi sundar rachna

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  4. बेहतरीन कविता


    सादर

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  5. bahut acha likha hae, kitne sad jaye rishte par ukhad pana hota hae mushkil...

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  6. bahut khoobsurat bhaav bahut pasand aai yeh rachna.

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  7. puraana seenchati rahiye..saath mein naya rop dijiye..uss se bhi rishta ban jaayega..

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  8. सोचती हूँ इंतज़ार करूँ....


    सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
    जाने कब
    शायद कोई ऐसा मौसम आये
    जो इस सूखे दरख़्त पर भी
    फल-फूल खिलाए....
    behad achhi

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  9. intjar kren wo mausam jarur aayega.....

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  10. very touching ...
    i feel connected to this poem somehow..

    simple and awesome...

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  11. एक सुने दरख़्त की व्यथा..बहुत ही सुन्दरता से व्यक्त किया है आपने...
    भला सूनापन किसे भाता है..
    बहुत ही सुन्दर....गहन भाव अभिव्यक्ति...

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  12. सुंदर बिम्ब ...आशावादी भाव लिए रचना ....

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  13. उस बीमार दरख़्त में अब भी इतनी शक्ति है कि
    अपने नीचे पनप आए रिश्तों को समेट सके...
    सकारात्मक सोच लिए सुंदर रचना!

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  14. ...प्यार का रस जब आएगा,अपने आप हरियाली आ जायेगी !!

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  15. जिंदगी के दरख़्त में जड़ें अक्सर झकड़ा होती हैं । इनसे निकलना आसान नहीं होता ।
    मार्मिक प्रस्तुति ।

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  16. सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
    जाने कब
    शायद कोई ऐसा मौसम आये
    जो इस सूखे दरख्त पर भी
    फल-फूल खिलाए....

    इस सुंदर अभिव्यक्ति के माध्यम से आपने बहुत गहरी बात कह दी है।

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  17. जंज़ीर की कड़ियों की तरह.सहेजे हुए भाव

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  18. रिश्तों के दरख़्त न सूखने पायें . उचित अन्तराल पर विश्वास का उर्वरक डालें और प्रेम रस से नहलाएं ..है न नानी के नुस्खे जैसा ??

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  19. आपके कमेंट के ज़रिए यहां तक आया और यह अर्थपूर्ण कविता पढ़ने को मिली। इस कविता की कशमकश जावेद अख़्तर की नज़्म की याद दिला गयी। संभवतः ‘उलझन’ या ‘दुश्वारी’ नाम था उसका।

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    1. मैंने जावेद साहब की ये नज़्म तो पढ़ी नहीं अलबत्ता गुलज़ार साहब की एक नज़्म से ज़रूर "inspired" है.....
      :-)

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  20. http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/03/6.html

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  21. ये ही सही तरीका लगता है..
    सुंदर प्रस्तुति...
    सादर।

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  22. सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
    जाने कब
    शायद कोई ऐसा मौसम आये
    जो इस सूखे दरख़्त पर भी
    फल-फूल खिलाए...
    bahut sundar....aabhar,

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  23. इस प्यार और विश्वास को संजोये रखिये ....बहुत ताक़त है इसमें......बहुत सुन्दर भावना !

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  24. अब एक पेड़ तो काट भी दूँ...
    मगर उसकी जड़ों से जुड गयीं हैं
    बरस-दर-बरस
    कई और छोटे बड़े,करीबी पेड़-पौधों की जड़ें..
    जैसे कई रिश्ते जुड़ते चले जाते हैं
    किसी एक रिश्ते के साथ..
    जंज़ीर की कड़ियों की तरह..
    अब एक साथ कितनी जड़ें खोदूं...
    अपने साथ किस किस को घाव दूँ???

    जानती हूँ और यह भी अच्छी तरह मानती हूँ ,

    पेड़ खुद बन जातें हैं अपनी खाद ,

    इसी आस में निराश नहीं हूँ .

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  25. रिश्तों को सींचना ही पड़ता है ....रिश्तों की जड़ें बहुत उलझी होती हैं ...

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  26. जीवन में रिश्तों को परिभाषित करती और उम्मीद को जिंदा रखती एक भावपरक काव्य-रचना है यह...बधाई स्वीकारें।

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  27. पेड़ के माध्यम से रिश्तों का सुंदर चित्रण किया है आपने और टूटते हुए रिश्तों के बीच एक उम्मीद का सेतु धनात्मक बल दे रहा है। उम्दा।

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  28. best one.... heart touching....
    पढ़ते पढ़ते ही भावों में खो गयी.... दबदबा गयीं आँखें मेरी....
    जीवन इन्ही जड़ों की फिक्र में निकल जाती हैं... उस पेड़ की बेरुखी को तो हम बहूल ही जाते हैं

    बहुत भावुक रचना

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  29. सो सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
    जाने कब
    शायद कोई ऐसा मौसम आये
    जो इस सूखे दरख़्त पर भी
    फल-फूल खिलाए....

    अनुपम भाव संयोजन लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  30. सींचती हूँ हर दिन उम्मीद लिए...
    यही भाव होने भी चाहिए |

    सादर
    -आकाश

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