लेख लिखना न मेरे बस का था न शौक में शामिल था ....एक प्रतिष्ठित पत्रिका "आधी आबादी " के लिए पहली बार लेख लिखा "अमृता प्रीतम "पर | भरपूर सराहना मिलने पर अब "आधी आबादी" के लिए हर माह एक आलेख लिख रही हूँ और लिखते लिखते खुद से सीख रही हूँ |
राजनीति और नेता कभी मेरी पसंद नहीं रहे मगर फिर भी पत्रिका की मांग पर अक्टूबर अंक के लिए इंदिरा गाँधी पर लिखा | वे इकलौती राजनेता थीं जिनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया था |
आशा है आलेख आपको पसंद आएगा -
इंदिरा प्रियदर्शिनी
(19 नवम्बर 1917- 31अक्टूबर
1984)
छोटी सी थी मैं,कोई 14-15
बरस की जब अपने पिता की उँगलियाँ थामे भोपाल शहर की एक सुन्दर सड़क के किनारे खड़ी
इंदिरा जी की रैली का इंतज़ार कर रही थी. खुली जीप में , पीली साड़ी में हाथ हिलाती
उस गरिमामयी छवि ने मेरे मन में तब से ही घर कर लिया था. उन्होंने अमलतास के फूलों
का एक गुच्छा मेरी ओर फेंका, एक पल को उनकी नज़र मुझ पर भी पड़ी थी. बस तब से इंदिरा गाँधी
कई और लाखों लोगों की तरह मेरी भी पसंदीदा राजनेत्री बन गयीं.
बेहद आकर्षक और चुम्बकीय
व्यक्तित्व की स्वामिनी इंदिरा जी को मैंने पहली बार जाना उनके पिता श्री जवाहल
लाल नेहरु के द्वारा लिखे पत्रों के संकलन से, जो मेरे पिताजी ने मुझे एक पुस्तक
के रूप में उपहार स्वरुप दिए थे. ये पत्र नेहरु जी ने इंदिरा को 1928 में लिखे थे
जब वे मसूरी में पढ़ रही थीं और सिर्फ 10-11 वर्ष की थीं. इन पत्रों को उनके पिता
ने दूरी की वजह से उपजी संवादहीनता की
स्थिति से बचने के लिए लिखा था, जिनमें उन्होंने उन सभी प्रश्नों के उत्तर लिखे जो एक बालसुलभ मन में पैदा होते होंगे.
उन्होंने पत्रों के माध्यम से पृथ्वी के बनने से लेकर सभ्यताओं और संस्कृतियों के
विषय में भी समझाया. ज्ञान और समझदारी का पहला पाठ इंदिरा को इन पत्रों से मिला. नींव
सुदृढ़ हो तो इमारत का बुलंद होना स्वाभाविक है.
नेहरु परिवार में सबसे बड़ा
बदलाव आया जब १९१९ में महात्मा गाँधी साउथ अफीका से लौटने के बाद उनसे मिले और
जिनके प्रभाव में आकर इंदिरा के माता पिता,पंडित जवाहर लाल नेहरु और कमला नेहरु
स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े. इंदिरा अपने दादा मोतीलाल नेहरु के बेहद करीब थीं पर
फिर भी माता पिता के जेल जाने और लगातार अनुपस्थिति ने छोटी उम्र में ही उन्हें गंभीर
बना दिया और एक परिपक्व सोच दी. बचपन में उनके खेल भी ब्रिटिश सेना को मार भगाने
जैसे विषयों को लेकर होते. मात्र 11 बरस में उन्होंने वानर सेना बनायी जो रामायण
के पात्र हनुमान और लंका दहन के लिए बनाई उनकी वानर सेना से प्रेरित थी. वे 13 बरस
की थीं जब में अपने स्कूल में उन्होंने कहा “गाँधी जी सदा से मेरे जीवन का हिस्सा
हैं”. बचपन से ही उनमें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने की ललक और जज़्बा था,एक
किस्सा बार बार पढने में आता है कि उन्हीं दिनों अपने पिता के पास से किसी
क्रांतिकारी मिशन के बेहद गोपनीय दस्तावेज उन्होंने ब्रिटिश पुलिस की नज़र से बचाकर
निकाले थे.माँ की मृत्यु के बाद वे पढने इंग्लैंड चली गयी, और 1930 के दशक के अन्तिम चरण में ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के समरविल्ले कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लन्दन में आधारित
स्वतंत्रता के प्रति कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बनीं।
1934-35 में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के
पश्चात,
इन्दिरा ने शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती
विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। जहाँ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे
"प्रियदर्शिनी" नाम दिया .
महाद्वीप यूरोप और ब्रिटेन में रहते समय उनकी मुलाक़ात एक पारसी कांग्रेस कार्यकर्ता,
फिरोज़ गाँधी से हुई जिनसे 16 मार्च 1942 को आनंद भवन इलाहाबाद में एक सादे समारोह में
उनका विवाह हुआ और इसके ठीक बाद वे भारत
छोड़ो आन्दोलन से जुडीं और कांग्रेस पार्टी द्वारा पुरजोर राष्ट्रीय विद्रोह की
शुरुआत की गयी। सितम्बर 1942
में
वे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार की गयीं और बिना कोई आरोप के हिरासत में डाल दी गयीं.अंततः
243
दिनों से अधिक जेल
में बिताने
के बाद उन्हें १३ मई 1943
को रिहा किया गया।
1944
में राजीव गांधी और इसके दो साल के बाद संजय गाँधी का जन्म
हुआ.
सन् 1947
के भारत विभाजन अराजकता के दौरान उन्होंने शरणार्थी
शिविरों को संगठित करने तथा पाकिस्तान से आये लाखों शरणार्थियों के लिए
चिकित्सा सम्बन्धी देखभाल प्रदान करने में मदद की। उनके लिए प्रमुख सार्वजनिक
सेवा का यह पहला मौका था।
उन्होंने कहीं लिखा है-
“ मेरे दादा जी ने एक बार मुझसे कहा था कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक वो जो काम करते हैं और दूसरे वो जो श्रेय लेते हैं ,उन्होंने मुझसे कहा था कि पहले समूह में रहने की कोशिश करो , वहां बहुत कम प्रतिस्पर्धा है.”
नेहरु जी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद इंदिरा
जी उनके साथ दिल्ली आ गयी और उनकी निजी सचिव,नर्स,राजनैतिक सलाहकार और स्नेहिल
बेटी के किरदारों को निभाने में जुट गयीं.तब से ही उनके और फ़िरोज़ गाँधी के बीच
दूरियाँ पनपीं.
इंदिरा जी के औपचारिक राजनैतिक जीवन की शुरुआत
तब हुई जब 1959 और 1960 के दौरान वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। हालांकि उनका कार्यकाल
घटनाविहीन था। वो सिर्फ अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं
थीं।
27 मई 1964 को नेहरू जी के देहांत
के बाद इंदिरा राज्यसभा की सदस्य चुनीं गयीं और सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए
नियुक्त हो, लाल बहादुर शास्त्री जी की सरकार में शामिल हुईं ,उसके बाद उन्होंने पीछे
मुड़ कर नहीं देखा.
सन् 1966 में जब श्रीमती
गांधी प्रधानमंत्री बनीं, कांग्रेस दो गुटों
में विभाजित हो चुकी थी - श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। 1967 के चुनाव में कई आंतरिक
समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 आसन प्राप्त किए। मजबूरन उन्हें मोरारजी भाई को
भारत के भारत के उप
प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस विभाजित हो गयी। उन्होंने
समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो वर्षों तक शासन चलाई। उसी
वर्ष उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयीकरण किया.
1971 में
उन्होंने पकिस्तान की भीतरी लड़ाई में हस्तक्षेप किया और बांग्लादेश का निर्माण हुआ,शेख़ मुजीबुर्रहमान प्रधानमन्त्री बनाये गए.यहाँ अमेरिका ने
पकिस्तान की मदद की और सोवियत संघ ने भारत की. ये इंदिरा जी की बहुत बड़ी
राजनैतिक सफलता थी. उनकी इस सक्रिय भूमिका से वह पूरी दुनिया में दृढ़ इरादों वाली महिला के रूप
में जानी जाने लगीं और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा की संज्ञा दी।
1974 में “स्माइलिंग
बुद्धा” नामक सीक्रेट मिशन के तहत अपने साहसिक फैसलों के लिए मशहूर इंदिरा गांधी ने 1974
में पोखरण में परमाणु विस्फोट कर जहां चीन की सैन्य शक्ति
को चुनौती दी, वहीं अमेरिका
जैसे देशों की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की।
इसी तरह 1975 में
सिक्किम का भारत में विलय भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी,हालांकि चीन ने इसे एक घिनौना
कार्य बताया.
इंदिरा कहती थीं : कुछ करने में पूर्वाग्रह है - चलिए अभी कुछ होते हुए देखते हैं . आप उस बड़ी योजना को छोटे -छोटे चरणों में बाँट सकते हैं और पहला कदम तुरंत ही उठा सकते हैं .
रजवाड़ों का प्रीवीपर्स समाप्त करना भी उनकी एक
बहुत बड़ी राजनैतिक उपलब्धि थी.
1975 का साल इंदिरा जी के राजनैतिक जीवन में एक
धब्बा सा लगा गया. उन दिनों विरोधी दलों और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय संस्थानों
ने इंदिरा सरकार की तीव्र आलोचना और विरोध शुरू किया.उन पर आर्थिक
मंदी,मुद्रास्फीति और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाए जाने लगे.और तभी इलाहाबाद हाई
कोर्ट ने 1971 चुनाव में धांधली की बात भी उजागर की और उन्हें पद त्याग का आदेश
हुआ. जिससे राजनैतिक माहौल गरम हो गया और 26 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लागू कर दिया. आपात स्थिति के दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दुश्मनों के साथ सख्ती बरती, संवैधानिक अधिकारों को निराकृत किया गया कई राजनेता जेल में
भर दिए गए
और प्रेस की आज़ादी छीन कर उन्हें सख्त सेंसरशिप के अंतर्गत रखा गया. इसी दौरान पांचवी “पञ्च वर्षीय योजना” और “बीस सूत्रीय कार्यक्रम” भी लागू किये गए,जिसमें गरीबी हटाओ
योजना पर प्रमुखता से काम किया जाना तय हुआ.
इसके बाद 1977 में छटवें लोकसभा चुनाव में इंदिरा गाँधी की पार्टी को जनता पार्टी
के द्वारा करारी मात का सामना करना पड़ा यहाँ तक उनकी और संजय गाँधी की सीट भी जाती
रही. 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई देश के नए प्रधानमन्त्री बने.
शायद ये इंदिरा का भाग्य ही था जो जनता दल एकजुट
होकर काम न कर सका वहां आतंरिक सिर फुटव्वल होती रही नतीजतन लोक सभा भंग हुई और
1980 में फिर चुनाव हुआ और इंदिरा गाँधी अपनी पार्टी के साथ फिर सत्ता में आयीं. इंदिरा
जी की कही एक पंक्ति यहाँ याद आती है- “आपको गतिविधि के समय स्थिर रहना और विश्राम के समय क्रियाशील रहना सीख लेना चाहिए” .
ये भारत के इतिहास में सबसे अधिक मंदी का दौर
था.इंदिरा गाँधी ने जनता पार्टी सरकार की पंचवर्षीय योजना को रद्द किया और छटवी
पंचवर्षीय योजना का आगाज़ हुआ.
इंदिरा अपार क्षमता और विलक्षण शक्ति का संचार
करने वाली महिला थीं. उन्हें भारत की “आयरन लेडी” कहा गया उनकी प्रतिभा का गुणगान
विरोधी भी किया करते थे.जयप्रकाश नारायण,हेमवती नंदन बहुगुणा,राजनारायण,मधु लिमये
और वाय.बी.चौहान उनकी खुले आम प्रशंसा करते थे.
गुटनिरपेक्ष सम्मलेन और कॉमन वेल्थ का आयोजन कर
उन्होंने भारत को विश्व मानचित्र में एक अलग पहचान दी.
ऑपेरशन ब्लू स्टार जैसा साहसी कदम इंदिरा जैसी बुलंद
इरादे वाली लौह महिला ही उठा सकती थीं हालांकि इसका खामियाजा उन्हें अपनी जान देकर
भरना पड़ा,मगर उन्हें मौत का डर था ही कब?
उन्होंने अपने आख़री भाषण में कहा था - यदि मैं इस देश की सेवा करते हुए मर भी जाऊं , मुझे इसका गर्व होगा . मेरे खून की हर एक बूँद …..इस देश की तरक्की में और इसे मजबूत और गतिशील बनाने में योगदान देगी .संभवतः उन्हें आभास था अपनी मौत का.
इंदिरा को उनके सलाहकारों ने अपने अंगरक्षक
बदलने की सलाह भी दी थी मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. जातिगत भेदभाव करना उन्हें
पसंद नहीं था.उन्हें लोग सचेत करते रहे परन्तु जवाब में उन्होंने कहा - अगर मैं एक हिंसक मौत मरती हूँ , जैसा कि कुछ लोग डर रहे हैं और कुछ षड्यंत्र कर रहे हैं , मुझे पता है कि हिंसा हत्यारों के विचार और कर्म में होगी , मेरे मरने में नहीं .....
“भारतरत्न इंदिरा प्रियदर्शिनी” ने राजनीति जैसे
क्षेत्र में होते हुए भी आम जनता का भरपूर सम्मान और स्नेह पाया और इसका श्रेय
उनके शानदार व्यक्तिव और सहज व्यवहार और प्रगतिशील विचारधारा को जाता है.
वे हर आम और ख़ास से पूरी आत्मीयता और खुले दिल
से मिलतीं, अपना हाथ आगे बढाती. फिर उनकी कही बात दुहराती हूँ- कि आप बंद मुट्ठी से हाथ नहीं मिला सकते .
इंदिरागांधी जैसा निर्भीक और प्रगतिशील
व्यक्तित्व देश के राजनैतिक रंगमंच पर निस्संदेह अब तक नहीं आया है.वे हिमालय सी
दृढ़ और समुद्र सी गहरी और गंभीर थीं. इंदिरा जी के सन्दर्भ में खुशवंत सिंह की कही
बात से पूर्णतया सहमत हूँ – कि इंदिरा एक ऐसी शख्सियत थीं जिनसे मोहब्बत की जा
सके, जिसकी प्रशंसा की जाय और जिनसे डरा जाय.....
-अनुलता राज नायर-