मुझे तलाश है
एक कविता की,
जो प्रवाहित हो
निर्बाध,
ह्रदय से मेरे...
बुझा दे तृष्णा मेरी
बुझा दे तृष्णा तेरी.....
तलाश है मुझे उस सरिता की....
ना जाने क्यों
इन दिनों
शब्द नहीं सूझते...
भावों के दलदल से
पार निकलने को
बस गीत रहे जूझते...
ना प्रभु वंदन लिख पाऊं
ना मन का कोई
क्रंदन लिख पाऊं...
महका दे कागज़
ऐसा ना चन्दन लिख पाऊं !
न राग-अनुराग
न ह्रदय की कोई
अनबन लिख पाऊं..
न काशी न मथुरा
न मन का वृन्दावन लिख पाऊं !
बंजर हो चली है
ह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
कोलाहल है भीतर....
ऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
व्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं........
-अनु
जो प्रवाहित हो
निर्बाध,
ह्रदय से मेरे...
बुझा दे तृष्णा मेरी
बुझा दे तृष्णा तेरी.....
तलाश है मुझे उस सरिता की....
ना जाने क्यों
इन दिनों
शब्द नहीं सूझते...
भावों के दलदल से
पार निकलने को
बस गीत रहे जूझते...
ना प्रभु वंदन लिख पाऊं
ना मन का कोई
क्रंदन लिख पाऊं...
महका दे कागज़
ऐसा ना चन्दन लिख पाऊं !
न राग-अनुराग
न ह्रदय की कोई
अनबन लिख पाऊं..
न काशी न मथुरा
न मन का वृन्दावन लिख पाऊं !
बंजर हो चली है
ह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
कोलाहल है भीतर....
ऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
व्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं........
-अनु
मन कि व्यथा कहती उत्कृष्ट रचना ...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर शब्दों का चयन और प्रयोग ...चित्र भी सुंदर ...
शुभकामनायें ...अनु जी ...
....बहुत सुन्दर लिखा है आपने अनु जी !!!
ReplyDeleteगजब की अभिव्यक्ति ।।
ReplyDeleteतब भी आप शिकायत करते हैं --
क्षमा सहित --
तृष्णा मिटती है नहीं, अंतर-मन बेचैन ।
शब्दों पर ढीली पकड़, नहीं प्रस्फुटित बैन ।
नहीं प्रस्फुटित बैन, भटकते गोकुल मथुरा ।
सोच हुई अति गहन, मूस-मन काया कुतरा ।
रविकर कम संताप, मिले हैं जबसे कृष्णा ।
साक्षातकारी होय, मिटेगी कृष्णा-तृष्णा ।।
मन की व्यथा का उत्कृष्ट स्वरूप..सुन्दर अभिव्यक्ति ..बधाई अनु...
ReplyDeleteकभी कभी यह व्यथा बहुत सालती है मन को .... लेखन निर्बाध गति से चले ... शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
बिलकुल ऐसाइच 'मूड' चाहिए कबिताई के लिए.....!
ReplyDeleteबाकी मन के सारे भाव प्रवाह से निकल पड़ें,वही कविता है !
आप बहुत आगे तक जाएँगी.....!!
कोलाहल है भीतर....
ReplyDeleteऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
व्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं......bahut accha yahi kolahal ik din
badli bn baras jayegi......
मुझे तलाश है
ReplyDeleteएक कविता की,
जो प्रवाहित हो
निर्बाध,
ह्रदय से मेरे...
बुझा दे तृष्णा मेरी.....!
aur ytalaash ant tak
jari rahti hai....!!
bas likhte rahen ham
ek ke baad doosari kavita...
yah soch kar ki vo de payegi
sukun thoda hi sahi....!
bahut sundar...!!
एक पल दो खुद को सिर्फ खुद को .... सब कस्तूरी से मिल जायेंगे
ReplyDeleteव्यथा ने ही ...आप से सुंदर कविता लिखवा ली....
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
मन की व्यथा का बहुत ही सुन्दर चित्रण..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव अभियक्ति.....
atisundar post mere blog par svagat hae aabhar.
ReplyDeleteवाह ! ! ! ! ! बहुत खूब सुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,..
ReplyDeleteMY RECENT POST ...फुहार....: बस! काम इतना करें....
Very beautifully expressed.
ReplyDelete"बंजर हो चली है
ReplyDeleteह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
कोलाहल है भीतर....
ऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
व्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं.".......
vaah ! सुन्दर , अति सुन्दर ... मनभावन ब्यथा ...
Absolutely wonderful Anu! Beautiful emotions expressed through very meaningful Hindi words. I'm delighted!
ReplyDeleteमन की व्यथा की सुन्दर अभिव्यक्ति --------बहुत सुन्दर भाव
ReplyDeleteऐसे में भाव कैसे उपजाऊं
ReplyDeleteव्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं...
अंतर के भावों को बहुत सुन्दर ढंग से रखा है आपने.
bahut sunder rachna ......abhar sweekarein
ReplyDeleteना जाने क्यों
ReplyDeleteइन दिनों
शब्द नहीं सूझते...
भावों के दलदल से
पार निकलने को
बस गीत रहे जूझते.........waah bahut khoob anu ji .. aisa laga jaisa sabhi lekhak ke saath hota ho . sach me kabhi kabhi shabd hi gum ho jate hai air geet jhoojhte rah jate hai . hardik badhai , behad sunder . dil me utarti hui rachna ,
अक्सर ऐसा ही होता है जनाब! हर कवि जीवन में बस एक कविता लिखना चाहता है जो उसके ह्रदय के तमाम भावों को अभिव्यक्त कर दे लेकिन मन की तृष्णा शांत नहीं होती और उस एक कविता की तलाश में रचना यात्रा लम्बी होती जाती है. कभी थोडा संतोष होता भी है तो थोड़ी ही देर बाद असंतोष और भी गहरा हो जाता है.
ReplyDeleteव्यथित मन का शानदार उद्गार...बेहद खूबसूरत अनु!
ReplyDeleteबहुत सुंदर । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteस्वयं पर गौर करें और मन की शांति तथा हृदय की गहराई को बढ़ जाने दें। उसके बाद जो शब्द उतरेंगे,वही सहज होंगे और उन्हीं से दोनों की तृप्ति होगी।
ReplyDeleteआर्त ह्रदय की सुन्दर पुकार..
ReplyDeleteमानस सागर में है उठता ,जिन भावो का स्पंदन.
ReplyDeleteतिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.
व्यथित मन के भावों को बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है आपने ...आभार
ReplyDeleteना प्रभु वंदन लिख पाऊं
ReplyDeleteना मन का कोई
क्रंदन लिख पाऊं.............सुंदर अभिव्यक्ति ................
अनु जी, तृष्णा व्यथा की है...क्यूंकी कविता की निर्बाध सरिता आज कल इतनी कलुषित हो गयी है की उससे अपनी प्यास बुझाने की कल्पना भी न कीजिएगा...बाकी जो मिलता है वो रेडीमेड बोतल बंद पानी सा....मशवरा यही की तलाश छोरकर खुद ही सरिता बहाने का प्रयास कीजिये...शायद हमें खुद की प्यास मिटाने का मौका मिल जाए...बहुत अच्छा लिखतहैं...साधुवाद आपको।
ReplyDeleteतलाश सफल हो सुखकर हो ..... शुभकामनाये ...
ReplyDeletethanks for appreciation anu ji ... your comment has been marked as spam automatically ... It is showing now ..
Deleteplease keep visiting .
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकभी पहचान तो कभी अभिव्यक्ति का संकट कविता में मुखर हुआ है .भाव और अर्थ अच्छ्टा(अर्थ -छटा ) में एक नयापन लिए हुए है यह कविता .
ReplyDeleteबंजर हो चली है
ReplyDeleteह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
बहुत अच्छी रचना .....
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteतृषित मन ही तृष्णा का एहसास कर पाता है
बंजर हो चली है
ReplyDeleteह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
कोलाहल है भीतर....
ऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
व्यथित मन की तृष्णा कैसे मिटाऊं.....
अनु जी बहुत ही सुन्दर मूल भाव,,कोमल जीवन दर्शन ..खूबसूरत ....सारे विराग मिटें ..मन की तृष्णा मिट जाए तो आनंद और आये
राम नवमी की हार्दिक शुभ कामनाएं इस जहां की सारी खुशियाँ आप को मिलें आप सौभाग्यशाली हों गुल और गुलशन खिला रहे मन मिला रहे प्यार बना रहे दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होती रहे ...सब मंगलमय हो --भ्रमर५
"बंजर हो चली है
ReplyDeleteह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं?"
सुंदर अभिव्यक्ति ...
ना जाने क्यों
ReplyDeleteइन दिनों
शब्द नहीं सूझते...
भावों के दलदल से
पार निकलने को
बस गीत रहे जूझते...
क्या लिखूं कहते-कहते आपने एक अच्छी कविता की रचना कर ही ली।
सुंदर भावोद्गार।
बंजर हो चली है
ReplyDeleteह्रदय की भूमि....
सूखे रक्त से
शब्दों की सरिता कैसे बहाऊं???
कोलाहल है भीतर....
ऐसे में भाव कैसे उपजाऊं .......
कोमल भावों का प्रवाह सीधे दिल से हुआ लगता है आपकी इस प्रस्तुति में. बहुत सुंदर.
बधाई और शुभकामनायें.
मन की पीड़ा को शब्द दिये हो जैसे ... बहुत गहरी अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteआपकी तलाश जल्द पूरी हो।
ReplyDeletehello Anu !!
ReplyDeletethanks 4 visiting me and giving me the opportunity to land here :)
Lovely blog u have..
Awesome expressions in above lines :)
loved it..
Wish to c more :)
सुन्दर अभाव-भाव...जब शब्द न मिले तो यह आगाज़ है तो शब्द मिलने पर क्या होगा....
ReplyDeleteअन्दर जितने भाव होते हैं...उतने शब्द नहीं मिलते...
ReplyDeleteGr8 expressions...keep writing
ReplyDeleteलो भैया , ये अजीब है , कविता नहीं लिख पा रहीं हैं इसी पर कविता लिख डाली , :)
ReplyDeleteसादर
-आकाश
अनु बस यही मन कर रहा है कि ,तुम्हारे सर पर स्नेह दे कर सारी पीड़ा हर लूँ ....
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDelete